Tuesday 26 May 2020

कुछ रह गया शायद / कवि - आनंद रंजन 'पथिक'

कविता

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सुबह सवेरे उठा जब
सपना अधूरा छोड़ क
लगा जैसे कुछ रह गया शायद।
करता और भी क्या
रोजमर्रे के क्रियाकलापों को छोड़कर
भाग-दौड़ ऐसी जैसे
कोई 20-20 मैच हो  शायद।

आधी चाय आधी चढ़ी बाजू
नाश्ता भी आधा छोड़ा
दफ्तर के आधे रास्ते
लगा कुछ रह गया शायद।
पहुंचते ही दफ्तर
अविरल सूची में दो-चार काम और जोड़ा
एक-एक को निपटाते भी
लगा जैसे कुछ रह गया शायद।

दो पल सांस लेकर
किसी अपने से दिल के तार जोड़ा
सूची वाला रावण ऐसा चीखा
मानो सब कुछ बिखड़ गया शायद।

सब की उम्मीद तले
अपनी आकांक्षाओं ने दम तोड़ा
खुश करते-करते सब को भी
लगा कुछ रह गया शायद।

शाम हुई आया खुद का वक्त
शिथिल पड़े मन को झकझोड़ा
ये करूं या वो करूं
ऐसी ही उधेड़बुन में डूबा रहा शायद।

हर शाम यूँ बीता जैसे
टेस्ट मैच कोई ड्रॉ पे छोड़ा
सुलझे अनसुलझे पहलुओं को
यूँ ही पार लगाता रहा शायद।

आंखें खुली, था पहले किरण का वक्त
बरबस आया याद रोजमर्रा वो तल्ख
क्या ऐसी भी थी दिन की कवायद
सच में न थी एक पल की फुर्सत
न एक पहर को अपनाने की जुगत
आज लगा क्या क्या रह गया शायद

जब मिले हैं फुर्सत के चार पहर
बिखरे बिछड़े पलों में कर रहा हूं सफ़र
चला हूं जीवन के पथ पर अग्रसर
अविरल 'पथिक' को न रोकेगा ये कहर
उल्टे पांव जाते कहेगा "कुछ रह गया शायद"।
.....
कवि - आनंद रंजन 'पथिक'
कवि का ईमेल आईडी - eeanand@yahoo.com
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