Tuesday 19 November 2019

अभी मन कुछ डोल रहा है / पूनम कतरियार की दो कवितायेँ

श्श्श्श....चुप्प...

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श्श्श्श...चुप्प...
अभी मन कुछ डोल रहा है
मस्तिष्क भी कुछ बोल रहा है
बरसों दफन था ,जो दर्द  सीने में
उसे आज  मौन  तौल  रहा है

श्श्श्श....चुप्प....
सांसें कुछ-कुछ चढ़ी हुई है
बातें बहुत कुछ गड़ी हुई हैं
घुटी -घुटी  हैं आवाज  गलें में
जाने कब से उंघती पड़ी हुई हैं

श्श्श्श .....चुप्प......
अरे, अनल  है कहीं भभका
हां,कुछ दिख गया भीतर का
नया सबेरा दस्तक दे रहा
चल,खोलें द्वार हम जीवन का.
.....
             

मैं 'भारत'


सुवर्ण- खचित, अभिराम, निष्कलुष
मेरे मस्तक पर शोभित हिमकिरीट
दसों दिशि प्रशंसित-स्नेहसिक्त
गर्वोन्नत ग्रीवा, मैं 'भारत'!

युवा-उष्ण-ऊर्जा से गुंफित
उत्कट अभिलाषा से संचित
गौरवपूर्ण-उपलब्धियों का प्रकाश
अशेष विजयों का स्वर्ण-इतिहास

मेरी गोद, हुलसे है किलकारियां,
खेतों में हैं पुलकित स्वर्ण-बालियां.
हैरान संसार मेरे अध्यातम-ज्ञान से,
सुरभित विश्व मेरे केसर- गंध से

मेरे चरणों पर है सागर नत 
मेरे हुंकार से है दुश्मन पस्त
मेरा चंद्रयान छू रहा ब्रह्मांड
नहीं सका कोई मुझे कभी बांध.
.....
     
कवयित्री - पूनम (कतारियार)
कवयित्री का ईमेल - poonamkatriar@yahoo.com
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चलूँ ‘मैं’ को ढूँढने / *युवा प्रतिभा*- विजय बाबू

कविता 

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दुनिया मीटर फीते सी
रफ्तार भी उसी की जैसी 
कभी धीमी कभी तेज
पाने कुछ बहुत घुमाती 

घूम रही ज़िन्दगी की धुन
गाये सब मन में गुनगुन
मिले खुशी और सहे गम
सीढ़ी-दर-सीढ़ी लक्ष्य को बढ़ें हम  

लक्ष्य मुक्कमल जहां का 
खुशियों के आसमां का 
थोड़ा मलाल भी मन में
खोते नज़ारा कहाँ कहाँ का ? 

आकाश सा मुकाम ऊंचा 
एहसास अपनी जिंदगी का 
गुणा-जोड़ करते करते
खुद को खुद में तलाशते

मुक्कमल आसमाँ निहारते
 हासिल की बुलंदी में भी
क्या खोया क्या पाया
गुमसुम मन खुद से पूछता 

आओ चलो लौट चलें
बुलंदी भी एक भँवर सा 
भीड़ से बहुत आगे क्यों
आखिर ये कारवां बढ़  चला 

लौटा गगन की ऊँची मंजिल से
प्रगति की वापसी राह पर
देखे मन हर एक का मुकाम
चुपके से खुद को निहारता 

बढ़ती उम्र अनुभूति करती 
जीवन है मन की दुनिया 
सोचती व कहती खुद से
मन ही मन 'मैं' को तलाशती
..........
कवि- विजय बाबू
कवि का ईमेल - vijaykumar.scorpio@gmail.com
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Thursday 14 November 2019

अतीत - बाल दिवस (14 नवंबर) पर विशेष कविता

अतीत
बाल दिवस  की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं!
(यह दिवस भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन पर मनायस जाता है।)
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अतीत के पन्ने पलटते ही
मेरा बचपन मुस्कुराया
उसने दी फिर मधुर आवाज
जब खेला करते थे दिन-रात
कभी आँख मिचौली का खेल तो
कभी गेंद आसमान में देते थे उछाल
कभी खो-खो कबड्डी में करते थे कमाल
तो कभी चोर - सिपाही बन खुद का मन बहलाया

कैरम में खो जाते थे रानी को घर लाते थे
और न जाने कितने खेलों में रम जाते थे
बिजली गुल हो जाने पर अंताक्षरी का खेल -खेलकर
गीतों को गुनगुनाते थे, डर को दूर भगाते थे
मात-पिता के संग बैठ कर तारों से बतियाते थे

गणित के सारे अंक तारों में नजर आते थे
"चंदा मामा दूर के" मधुर गीत वो गाते थे
भाई -बहन के संग मिल सपनों में खो जाते थे
बीत गए वो दिन सारे, ले लिया रूप अतीत का
पर अब भी खड़ा वहाँ पर मेरा बचपन आवाज दे रहा।
.....
कवयित्री - आभा दवे
कवयित्री का ईमेल - abhaminesh@gmail.com
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Wednesday 6 November 2019

छठ का प्रसाद और डाक पार्सल / हास्य-कथा

"परसाद पर तो सबका हक होता है न!

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जैसा अद्भुत पर्व है "छठ",चार दिनों की कठिन तपस्या, अखंड निर्जल व्रत! कहीं दंड प्रणाम  तो कोई सिर्फ जल में खड़ा हो रहा, तो कोई जल में घंटों खड़े रहकर सारे मानता के कोनिया, दौरा, सूप,तो नारियल अर्घ्य के साथ सुरुजदेव को चढ़ाता है।

और छठ की समाप्ति के साथ मिलता है आशीष के संग संग अंकुरी ,फल और उम्म्म .....घी में बने हुए अपूर्व स्वाद से भरपूर ठेकुआ! जितना मनभावन सुगंध होता है उतना ही मजेदार स्वाद! हम बिहारी इसे कभी-कभी यूं भी बनाया करते हैं। पर छठके ठेकुए जैसा स्वाद नहीं मिलता! लोग-बाग निस्संकोच विभिन्न घाटों पर घूम घूमकर प्रसाद मांग कर लेते हैं।

मेरी पड़ोसन और मित्र रीना के मायके में छठ होता था तो अकसर वो चली जाया करती और मायके की याद के संग प्रसाद भी लाती। पर सब दिन तो एक समान नहीं रहता,तो इस बार कुछ व्यस्तताओं के कारण घर नहीं जा पाईं। बड़ी दुखी हुईं और माँ से बराबर दुख व्यक्त करती रहीं। 

मां को भी बेटी पर पूरा ध्यान था सो  छठ के बाद मां ने एक बड़े डब्बे में भरकर बिटिया को पार्सल कर दिया। रीना को पता चला तो बड़ी गुस्सा भी हुईं कि इतनी-सी बात के लिए यूं हैरान-परेशान होने की तो जरुरत क्या थी!पोस्टल डिपार्टमेंट का क्या भरोसा; मिले ना मिले! फिर सबको बार-बार खुशी से आश्वासन भी देती थी कि पार्सल आएगा तो सबको बाटुंगी!

एक दिन शाम की चाय के बाद हमारे घर से अपने फ्लैट में पहुंचीं तो बगल वाली ने बताया; "अरे कहां थीं आप,अभी -अभी डाकिया पार्सल वापस ले गया।देखो, अभी मेन गेट पर नहीं पहुंचा होगा।" बेचारी रीना सरपट भागीं और डाकिया मेन गेट पर ही मिल गया। उसने फटाफट उसके कागज पर दस्तखत किया और पार्सल लेने को हाथ बढ़ाया।

हे भगवान! यह क्या पार्सल तो फटा हुआ है! एक बड़ा-सा स्टील का डब्बा, जिसमें कुछ नहीं तो चालीस-पचास ठेकुआ होता; उसमें बमुश्किल आठ -दस ठेकुआ ही हैं! वो तो उबल पड़ीं डाकिये पर,"ऐसा कैसे? मैं कंप्लेन करुंगी।" 

डाकिये ने इत्मीनान से कहा "अच्छा है, फिर ये डब्बा मुझे दे दो; वैसे भी परसाद पर तो सबका हक होता है न! जैसा मिला,लेकर आया हूं और अब तो वो भी नहीं मिलना।"

मरता क्या न करता, बेचारी हारकर पार्सल लेकर सलमा आगा बनी हुई चलीं आ रही थीं -
"दिल के अरमां आंसूओं में बह गए SSS"
......

लेखिका - कंचन कंठ
लेखिका का ईमेल - kanchank1092@gmail.com
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