Wednesday 14 November 2018

"यह भी एक घर" और "समय"- पूनम कतरियार की दो कविताएँ


poonamkatriar@yahoo.com <poonamkatriar@yahoo.com>
To:editorbiharidhamaka@yahoo.com
9 Nov at 9:33 PM

रेखाचित्र- सिद्धेश्वर


यह भी एक घर
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तड़के,मुंह -अंधेरे 
फिर,चूल्हा-चौका
बर्तन-भांड,झाड़ू-बुहारन.
मोटी- रोटियां,,बासी- सालन.
दे देती हूं बांध,तेरे हाथ 
दिनभर का कलेवा.
कि, किसी चौक-चौराहे पर
किसी ट्रक-ट्रैक्टर पर 
लाद ले पशुवत कोई ठेकेदार
या,दिनभर को मजूरा बना लें.
लोहार के भट्ठी की तरह ,
निरंतर तपा ले तेरे हाड़-मांस को.
मैं भी सनी रहती दिन-रात, 
जूठे-बर्तन, गंदगी के अंबार
यहीं गली-गली,द्वार-द्वार.
चोरी-चकारी के इल्ज़ाम,
गाली-गलौज,डांट-फटकार.
भूख के मरोड़ से सांसे बचाते
फटे-आंचल को सिलती रहती.
सांझ ढले, फिर वही अंधेरा ,
घर-संसार से मन के भीतर तक
निढाल हंसी, थका-हारा चुहल
स्वपनरहित हम पसर जाते है
टूटे-खाट के बिछे टाट पर.
हमारे पलकों के सेज पर
बिकी हुई औरत-सी नींद
मजबूर हो आ जाती है.
                  ------पूनम (कतरियार),पटना
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poonamkatriar@yahoo.com <poonamkatriar@yahoo.com>
To:Editor Bihari Dhamaka
1 Nov at 10:00 PM


समय
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हवा  भोर  की
भर लो सांसों में
नव-ताजगी  से तुम
भर लो तन  को भी.
दिन चढ़े, तीक्ष्ण -धूप
सहना   पड़ जाता   है
जीवन के आपाधापी में
जलना   पड़ जाता   है.
उमस से लथपथ
 है  समय  अब तो,
हो जाती बारिश
कभी असमय अब तो.
राह जीवन के
गंदले हो जाते है
आंसू से आंखें
धुंधले हो जाते है.
 कीच-कादों में 
सन जाते हैं
निर्मल मन भी.
पद-मद  में
बन जाते 'बुरे'
भले जन भी.

            --  पूनम (कतरियार)