Saturday 23 February 2019

'बेवा' और अन्य कविता / कवि - लाला आशुतोष कुमार शरण

बेवा 
             


  
आते-जाते छुपी नज़रों से क्या ढ़ूढ़ते हो
मेरी झुकी पलकों में क्या देखते हो
तेरे पवित्र नज़रों को पढ़ लिया अजनबी
कभी रंग ला सकती नहीं चाहत तेरी
नज़रों की गफ़लत में फंस जाना
मेरे बदर आना बदनाम ये दर है
कहूं क्या दास्तां , आंसुओं का समंदर है
दुनिया ने कुचला है ज़माने ने मसला है
कई काबे जुफ़ाफ गुज़री हुई हूं मैं
अपनों ने छोड़ा , दरिंदों ने नोचा है
सूरत बनी दुश्मन, जवानी ने मारा है
सवाल जे़हन में बग़ावत पर उतारू है
क्या बेवा को दिल नहीं होता
क्या उसके अरमां नहीं मचलते
बता जहां इंसाफ़ के तराजू पर
जीवन ख़ुद जीने का हक है कि नहीं.
...


 अंधेरा सिमट रहा है
                                    
     भागमभाग की दुनिया में  
             जिंदगी ठहरी हुई है              
रात मान सोयी हुई सी है
ऐसे कटेगी नहीं ज़िन्दगी
दुनिया अभी भी खुबसूरत है
प्रकृति दिल खोले हुए है
जाग, सूरज निकल रहा है
शैने-शैने अंधेरा सिमट रहा है.
....


कवि- डॉ. लाला आशुतोष कुमार शरण 
कवि परिचय - डॉ. शरण एक सेवानिवृत विभागाध्यक्ष प्राध्यापक हैं और इनका एक कविता संग्रह प्रकाशित हो चूका है. 
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com

Wednesday 20 February 2019

उभरती प्रतिभा / स्वर्णिम सौरभ की कवितायेँ

कविता -1



वो शाम भी कितनी बेगानी थी 
उस दिन ज्यों सूरज ढल गया
मानो सब कुछ बदल गया
टूट गए मेरे अरमानो के पंख
दे गये मानो मुझको कितने ज़ख्म|

कल तक तेरा कुछ एक पल 
जो मेरे साथ था
मानो हर एक पल 
मुझको खुद पर नाज़ था

अब तो मधुर चाँदनी रातें हों 
या बिन मौसम घनघोर बरसातें 
अब ज्यों ही नयनं संजोता हूँ
मैं तो तुझ संग होता हूँl
.....

कविता-2

न तुम मुझसे रूठी हो
न मैं तुमसे रूठा हूँ
समय का फासला तो देखो
तुम आज भी दिल के पास हो
मगर  मैं तुमसे दूर बैठा हूँ
न तुम झूठी थी
न मै झूठा था
न झूठे थे वो पल
बस झूठा हो गया मेरा हर ख्वाब
जो मैंने तुझ संग देखा था।
...


नाम :स्वर्णिम सौरभ
पता: बेतिया (पश्चिम चंपारण)
शैक्षणिक योग्यता :एम.सी. ए
कार्य: सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट

Saturday 16 February 2019

वसंत लौट आने दें / कवि- लाला आशुतोष कु.शरण

गर तेरे ख़्वाब मेरे अरमान / फिर मिल जाएं तो कैसा हो




ग़र तेरे ख़्वाब मेरे अरमान
फ़िर मिल जाएं तो कैसा हो! 
यदि तेरे आंसू मेरी तड़पन
एक हों जाएं तो कैसा हो
न ग़म होंगे न तूफ़ां उठेगें
न शिकवा होगी न शिकायत
जीवन पटरी पर लौट आएगा
यह ख़्वाब कल भी आया था

कभी लिए थे सात फेरे दिल से
सात जन्मों तक साथ रहने के
उबड़-खाबड़, हिचकोले खाते सही
चल तो ठीक रही थी ज़िंदगी
लहरों संग ऊपर-नीचे नैया पार लगती है
माना कि भावनाओं का सम्मान है परिणय
दिलों में बसे अरमानों का गठबंधन है शादी
जीवन साथी संग साथ निभाना एक अदा है
ऐसा क्या हुआ सब भूल कर तोड़ दिया  
बिना दिलों में झांके रिश्तों का बंधन 
तुम्हें चाहा था दिलो-जान से
लौ जलाए रखी है अब तक
शायद साथ जाएगी चिता पर

सबकुछ मिलता नहीं मुआफ़िक़ 
राहें ढ़ूंढ़ चलती रहती है ज़िन्दगी
क्यों न रातों के सपने सच करें
एक नये प्रभात का सूरज उगाएं 
अरमानों को पंख दे, उड़ान भरें
लो मैं ही पहल करता हूं प्रिये
जो हुआ उसे भूल कर करवट बदल लें
सांसों की गर्मी, दिलों की धड़कन
कर साझा,बहारों को मुस्कुराने दें
चमन में वसंत फ़िर से लौट आने दें
....



कवि- लाला आशुतोष कुमार शरण  
कवि का ईमेल - lalaashutoshkumar@gmail.com
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Thursday 14 February 2019

वैलेंटाइन डे पर विशेष / मेरा अनोखा प्रेम - कंचन कंठ

(नोट - यह लेख यूं तो पहले ही लिखा गया था किन्तु कल की घटना के बाद और अधिक प्रासंगिक हो गया है. भारत माँ को अपने खून से सींच कर हमारी रक्षा करनेवाले सभी शहीदों को कोटिशः नमन)

प्रेम.......आह प्रेम .....   वाह प्रेम 



प्रेम, प्यार ,मुहब्बत और भी न जाने कितने नाम! मै तुच्छ प्राणी इसके बारे मे क्या कहूँ ?

बड़े -बड़े संत, ज्ञानी ,कवियो ने जाने कितनी परिभाषाएं, कितनी व्याख्याएं कर डाली है!
हर सभ्यता,हर संस्कृति मे प्रेम पर इतना कुछ कहा गया है- इतने प्रकार इतने रूप कि मै तो हतप्रभ हो जाती हू।आदि प्रेम, अंत प्रेम ,अनंत प्रेम।

पर सबसे उपर है यह 7-14 फरवरी वाला! प्यार को लोगो ने हफ्ते मे बाँध कर रख दिया है। जहा देखो इसी के चर्चे ,इसी की धूम।घर , गली -मुहल्ला,चौक-चौराहा,स्कूल-काॅलेज,बाग-बगीचे कुछ भी तो नही बचा इससे। हर उम्र, हर तबका बेहाल!

फिर बाजार के वैश्वीकरणने भी इसे बढावा देने मे कोई कसर नही छोड़ा। फूल,कार्ड्स,खिलौने, ज्वैलरिज आदि मंहगे मंहगे गिफ्ट्स लिए और दिए जाते हैं। कई बार तो कीमत ही प्यार - मुहब्बत का पैमाना मान लिया जाता है। जिसके लिए पता नही क्या- क्या जुगाड़ लगाते है , कितने पापड़ बेलते है।

इस सब मे वो प्रेम की निश्छल ,कोमल ,नाजुक भावनाएँ कही गुम सी हो गई लगती हैं।  हमने बचपन से सीखा कि लेन देन प्यार, विश्वास, इज्जत का ही होना चाहिए, यह नही कि मौका मिले कि सर पकड कर मूंड ही डालो सामनेवाले को। तो दुनिया की ये रीत रास नही आती, क्यों दिखावटी भेड़ चाल के पीछे भागना?  क्यों अंधाधुंध नकल करना? 

कुछ ऐसा करू जो खुद को भी संतुष्टि दे और किसी के होठो पर मुस्कान ले आए। जो न किसी फैक्ट्री की उपज हो, न कही बिकता हो।

तो मैने संपूर्ण मानवता के लिए अपने प्रेम को दर्शाने के लिए, मानव -मात्र के कल्याण मे जुटे असंख्य, अथक हाथो को कृतज्ञता ज्ञापन के लिए रक्तदान करने का निर्णय लिया। मै अपने इस छोटे से योगदान के लिए ईश्वर को लाख- लाख धन्यवाद ज्ञापन करती कि उसने मुझे इस योग्य बनाया। भगवान् आपका सहस्त्र आभार मुझे स्वस्थ रखने के लिए भी।
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आलेख -कंचन कंठ
छायाचित्र सौजन्य - कंचन कंठ 
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Monday 4 February 2019

खोज / विजय कुमार की कविता

खोज 

विजय बाबू 

तब पाया क्या था कैसे जानूं
अब खोया क्या कैसे समझूँ,
गर मिले तराजू इंसानियत तौलने की
तो फिर मुकम्मल इंसान को खोज सकूँ ।

सोचूँ क्या पाया पर क्यों आख़िर
फूल सी बगिया भी है वसंत ख़ातिर,
है सबकी नज़र कुछ पा सकने की
तो कोई भरी झोली तो खोज सकूँ ।

जीवन एक है पर न सबकी एक सी
बातें अनेक हैं न एक हम सब की,
भीड़ में ना कोई बेगाना ना कोई पराया
 हसरत मंज़िलें पाने को खोज सकूँ ।

रात के बाद दिन फिर वही रात अंधेरी
डगर जीवन की कुछ पूरी कुछ अधूरी,
है यही ज़िंदगी जिगर रख महफ़ूज़ रे मनवा
बढ़ूँ आगे बस राह आगे की खोज सकूँ।
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कवि~ विजय बाबू
छायाचित्र - पेरिस के प्रसिद्ध संग्रहालय ( Musée du Louvre.) में खींचा गया  कवि का चित्र 
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नोट-  श्री विजय बाबू, बेजोड़ इंडिया ब्लॉग के सबसे सक्रिय पाठकों में से हैं और ग्राम - कमलपुर (मचुबनी)  के रहनेवाले हैं.