Tuesday 26 May 2020

कुछ रह गया शायद / कवि - आनंद रंजन 'पथिक'

कविता

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सुबह सवेरे उठा जब
सपना अधूरा छोड़ क
लगा जैसे कुछ रह गया शायद।
करता और भी क्या
रोजमर्रे के क्रियाकलापों को छोड़कर
भाग-दौड़ ऐसी जैसे
कोई 20-20 मैच हो  शायद।

आधी चाय आधी चढ़ी बाजू
नाश्ता भी आधा छोड़ा
दफ्तर के आधे रास्ते
लगा कुछ रह गया शायद।
पहुंचते ही दफ्तर
अविरल सूची में दो-चार काम और जोड़ा
एक-एक को निपटाते भी
लगा जैसे कुछ रह गया शायद।

दो पल सांस लेकर
किसी अपने से दिल के तार जोड़ा
सूची वाला रावण ऐसा चीखा
मानो सब कुछ बिखड़ गया शायद।

सब की उम्मीद तले
अपनी आकांक्षाओं ने दम तोड़ा
खुश करते-करते सब को भी
लगा कुछ रह गया शायद।

शाम हुई आया खुद का वक्त
शिथिल पड़े मन को झकझोड़ा
ये करूं या वो करूं
ऐसी ही उधेड़बुन में डूबा रहा शायद।

हर शाम यूँ बीता जैसे
टेस्ट मैच कोई ड्रॉ पे छोड़ा
सुलझे अनसुलझे पहलुओं को
यूँ ही पार लगाता रहा शायद।

आंखें खुली, था पहले किरण का वक्त
बरबस आया याद रोजमर्रा वो तल्ख
क्या ऐसी भी थी दिन की कवायद
सच में न थी एक पल की फुर्सत
न एक पहर को अपनाने की जुगत
आज लगा क्या क्या रह गया शायद

जब मिले हैं फुर्सत के चार पहर
बिखरे बिछड़े पलों में कर रहा हूं सफ़र
चला हूं जीवन के पथ पर अग्रसर
अविरल 'पथिक' को न रोकेगा ये कहर
उल्टे पांव जाते कहेगा "कुछ रह गया शायद"।
.....
कवि - आनंद रंजन 'पथिक'
कवि का ईमेल आईडी - eeanand@yahoo.com
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Monday 25 May 2020

पापी पेट के लिए जागता दौड़ता शहर / कवि - विजय बाबु

कविता

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वर्तमान के गर्त से निकली ये चिंगारी
क्या पता अब कब, कौन
शहर खुद चले गाँव की ओर
या गाँव ही शहर को दे जनम
पर जालिम पापी पेट है
कि यह भूख ही शहर तक ले गया
पेट भरा तो शहर के साथ दौड़ा
बदले में शहर ने ही शरण दिया,
पर अब फिर वही पापी पेट
और उसी भूख ने ही किया वापस
जीते रहने की ख़्वाहिशों के बदले हज़ारों मील
तय करने को विवश किया ।

न जाने क्यों एतवार हो गया
शहर को सिर्फ शहर पर 
और जागा प्यार गाँवों का फिर गाँव से
न जाने कब कौन, कहाँ अब
फिर से इक नये जन्मे शहर को जीवित कर
 बसे बसाये शहर को ही वीरान कर दे 
और कहे कि
पापी पेट ही है सबका मालिक,
जागता शहर तो बस बानगी भर है
तो ऐ शहर बंद कर इठलाना अभी
देख पापी पेट स्वयं तुझे मौका देगा 
इठलाने का फिर इक बार 

देगा, क्योंकि तुझे जागते हुए ही
दौड़ते हुए ही 
और सजते-सँवरते हुए ही  देखा
 तो आज सोते, रोते
हुए देखा तो जी घबराने लगा,
लगा कि गाँव तो अपना था मगर
तू भी तो सपना था 
जिसे साकार करने हम पापी पेट लेकर जो निकले थे
आये थे निकल कर दूर कूच करने को,
और शहर दर शहर संवारने क्योंकि
पापी पेट ही है सबका मालिक
तू तो महज़ निमित्त मात्र है शहर
और हमारा-तुम्हारा मिलन ही सत्य है ।

तो सोच जरा एक पुल को बनाने की
ताकि पापी पेट भी भरे 
और तेरे
जैसे सब शहर भी सजे
 इस कोने से उस कोने तक सजता रहे 
क्योंकि,
अपना तो ढर्रा रहा है इस धरा पर
शहर भूखा तो पेट भी भूखा रहे
पेट भूखा तो शहर भी रोता रहे
तो गाँव ही शहर बन 
तो आ सकूँ पास पुल के
और तू भी चल ऐ शहर मेरी ओर
कि दोनो ही बढ़ा सके अपने कदम
और चरण-थाप की चिंगारी में 
हँसे तुम और हम।
....
कवि -  विजय बाबु
कवि का ईमेल आईडी - vijaykumar.scorpio@gmail.com
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Sunday 24 May 2020

अम्फान तूफान / कवि - जगदीप सिंह मान 'दीप'

कविता 

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अम्फान ने दिखाया तांडव
भय से भीत हुआ है मानव
मौसम विभाग बता रहा
सदी का सबसे भयंकर मंजर
ख़ौफनाक होकर ऊपर उठ रहा समंदर

क्रूर हो गया पारावार
जा पहुँचा घर द्वार
टूटे आशियाने मचा हाहाकार
बेबस जीव करे क्या उपचार?

सनसनाती हवाएंँ
 डूबती नौकाएं
बिलबिलाते बच्चे काँपते गात
अपनों से ही छूट रहे अपनों के ही हाथ

खौफ में मानव बस्तियांँ 
हिल गई बड़ी-बड़ी हस्तियांँ

बर्बरतापूर्ण होकर बढ़ रही लहरें
 गिरफ्त में आ गए गाँव-शहर
जीवन जीना मुहाल हुआ
 मौत सिर पर मंडरा रही आठों पहर
आम जीवन अस्त-व्यस्त
 जान हथेली पर रखकर भाग रहे इधर-उधर

अम्फान का पश्चिमी बंगाल और ओडिशा पर कहर
पल-पल में उगल रहा है ये  अपना जहर

पता नहीं जीवन कब पटरी पर लौटेगा?
पता नहीं प्राकृतिक आपदाएं कब तक खेलती रहेंगी खेल?
क्या ऐसे ही मनुज का निकलता रहेगा तेल?

क्या यही है जीवन सार?
कभी दबदबा होता है कभी होता तार-तार।
.....
कवि - जगदीप सिंह मान "दीप"
परिचय- हिन्दी शिक्षक, राजकीय बाल वरिष्ठ उच्च माध्यमिक विद्यालय, लाडपुर, दिल्ली
शिक्षा निदेशालय, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, भारत।
ईमेल आईडी- jagdeepmaan1044@gmail.com

कवि जगदीप सिंह मान 'दीप' 

Thursday 21 May 2020

निष्पक्ष बयान /कवि - वेद प्रकाश तिवारी

कविता 

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यह सिर्फ भ्रांति है कि
कविता होती है 
कवि की कल्पना मात्र 
जिसे वह देता है कलम की धार
पर कविता की वास्तविकता 
जुड़ी है उस दर्द या पीड़ा से 
जिसके अनुभव से गुजरा है कवि
चाहे वह अपनी हो या पराई 
या हो शामिल 
संपूर्ण मानव समाज 
या जुड़ा हो प्रकृति का कोई पहलू
इसी को अपनी लेखनी से 
कवि देता है मूर्त रूप 
यदि पाठक निष्पक्ष भाव से 
करे विचार 
तो कविता बोल उठेगी 
कि तुम भी हो कहीं ना कहीं 
मुझमें शामिल 
कविता रखती है अपनी गरिमा 
वह नहीं करती पसंद ओछापन
नहीं बंध सकती छंदों में 
तब तक 
जब तक कि वह न गुजरी हो 
किसी गहरे अनुभव से
कविता समेटे रहती है 
अपने में सुख-दुख 
उम्मीद, संवेदना ,दर्द,
शक्ति और प्रोत्साहन जैसे 
अनछुए पहलुओं को 
तभी तो अत्यंत पुरानी कविता भी 
हर युग में लगती है जीवंत । 
........

कवि - वेद प्रकाश तिवारी 
कवि का ईमेल आईडी - vedprakasht13@gmail.com
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Wednesday 20 May 2020

शब्द संसार / कवयित्री - मीनाक्षी डबास 'मन'

कविता

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शब्द आवरण, शब्द जागरण
शब्द समय का सार
शब्द बिना है सूना देखो
यह सकल संसार।

शब्द बनाए, शब्द बिगाड़े
दुनिया को यह नाच नचाए
कभी गीत का राग बने तो  
कभी तीखी धार हो जाए।

शब्द हंसाए, शब्द रुलाए
भिन्न भिन्न यह रूप सजाए।
 कभी सार्थक, कभी निरर्थक,
वर्णों का ऐसा मेल बिठाए। 

शब्द मित्र, शब्द ही शत्रु
कैसे –कैसे संबंध बनाए।
मीठा बोलकर मेल कराए
जहर बने फिर भेद कराए ।

शब्द लघु, शब्द विशाल है 
चरित्र इसी से आंका जाए।
दुष्टों का हथियार कभी यह 
संतों का आशीर्वाद बन जाए।

शब्द प्रेम, शब्द द्वेष भी
भावाविष्ट हो जो बोल जाए । 
प्रेमी विहग रोमांच से फूले
बैरी जन के मन को जलाए ।

शब्द भूत, शब्द आज है
युगों-युगों तक फैला जाए । 
अकबर-अशोक रहते इसमें
क्या होता, उसका ज्ञान कराए। 

शब्द कबीर, शब्द है तुलसी 
भक्ति के न्यारे पंथ सुझाए।
एक समाज को सत्य दिखलाए
एक समन्वय का अलख जगाए।

शब्द है हिन्दू, शब्द मुसलमान
आस्था के भिन्न रूप कहाए। 
जीवन का कल्याण करो सब
हर धर्म यही सिखाता जाए।

शब्द प्रजा, शब्द ही शासक
निज दायित्व का बोध कराए।
देश-रक्षा प्रथम उद्देश्य हो
वरण करो चाहे पृथक उपाय।

शब्द मौन है, शब्द मुखर है
कहे कभी मन राखा जाए।
विचार बहें अंतरतल पर
जिह्वा से प्रकट हो जाए। 

शब्द कवि, जो बना रवि है
निज भाव से जग को जोड़े जाए।  
छंद, रस, अलंकार, वक्रोक्ति 
शब्दों का सुंदर मेल बिठाए।
....

कवयित्री - मीनाक्षी डबास "मन" 
परिचय - प्रवक्ता हिन्दी 
राजकीय सह शिक्षा विद्यालय पश्चिम विहार शिक्षा निदेशालय दिल्ली भारत  
कवयित्री का ईमेल आईडी - Mds.jmd@gmail.com 
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Monday 18 May 2020

श्रमिक / कवयित्री - दीपा आलोक

कविता 

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बेघर हूँ बन गया पथिक 
हाँ मैं हूँ लाचार श्रमिक।
हर निर्माण में करूँ योगदान 
उद्योग सड़क या हो मकान ।

जाने  कैसा टूटा ये कहर 
जर्जर हो गया मेरा घर 
भाँप कर मेरी वेदना 
दी जी भरकर संवेदना 
न मिली मदद मुझे इस पहर । 

तोड़कर अपना आशियाना 
छोड़कर अपना ठिकाना 
निकल पड़ा करने मैं सफर 
था ज्ञात मुझे लम्बी है डगर 
स्वजन - परिजन थामे हाथ 
मिला अपने जैसों का साथ 
साहस हिम्मत और धैर्य 
इतना बटोर बढ़ चले पैर ।

संकल्प मन में  ठाना था 
कठिनाइयों से अनजाना था 
निराहार निर्जल था ये व्रत 
हो चला था मैं भी क्षत - विक्षत 
बच्चों की देख मैं सूरत 
ली प्रेरणा कर ली हिम्मत 
साहस हिम्मत और धैर्य 
इतना बटोर फिर चले पैर ।

दिन बीते पर न टूटी आस 
कर संघर्ष पहुंचा आवास 
यूँ लगा कि जैसे भोर हुई 
नव दिन निकला नव आस बँधी 
अब थी एक नयी तलाश 
घर पहुँच गया 
पर हाय ! ये पेट की आग 
फिर मुझे पड़ेगा संवारना 
परिवार घर को संभालना 
करना फिर मुझको योगदान 
करना नित मुझको नव निर्माण ।
.....

कवयित्री - दीपा आलोक 
कवयित्री का ईमेल आईडी - deepaalok2@gmail.com
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कवयित्री - दीपा आलोक 

Saturday 16 May 2020

"मजबूर हैं पर मजबूत हैं"और अन्य कविताएँ / युवाकवि - जगदीप सिंह मान 'दीप'

दो कविताएँ

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 मजबूर हैं पर मजबूत हैं 

लाॅकडाउन की आफत ने, मजदूरों को किया बेसहारा
जीवन जीना मुहाल हुआ, क्या करे मजदूर बेचारा?
दृश्य बड़ा भयावह है, देखने में लग रहा है न कुछ न्यारा 
कोरोना महामारी से परेशानियाँ उठा रहा है मजदूर वर्ग सारा
सिर पर गठड़ी रखकर चल पड़े, जेब में नहीं बचा किराया
फिर भी पग-पग पे पीड़ा उठाकर, घर पहुँचने का बीड़ा उठाया
चलने पर मजबूर हुए, ध्यान धरा अपनी मंजिल पर
हम किसके आगे गुहार लगाएं? 
कौन हमारी सुनता है?
         ये कैसी लाचारी?

  अरे! कोरोना‌
तू ही तो ले आया है हमारे जीवन में बेकारी
दिन का चैन गया, रातें हो गई हैं और ‌अंँधियारी
भंँवर का बना बवंडर, मन के महल हो गए खंडहर
टूट गया आशियाने का बंबू, छूट गया साया का तंबू 
साइकिल रिक्शे  को ही घर बनाकर, बीबी बच्चों को ले चला घरबारी
भूखे प्यासे ही निकल पड़े पथ पर, पैदल ही करने लगे सवारी
इनको पता है इस पथ पर कांँटे ही कांँटे हैं
पर इनके दुखों को कब किसने बाँटे हैं?
सब्र का बांँध टूट गया है, संकट के बादल मंडराए
चना चबा चबाकर पीकर पानी, जैसे-तैसे दिन-रात बिताए
हिम्मत की हुंकार भरी है, मजबूत मनोरथ से मंजिल की तैयारी
परेशानियों का पहाड़ देखकर, चल पड़ी है मजबूरी की लारी
कुछ रास्ते में रह गए, कुछ ने मजबूत कदमों का लिया सहारा
मजबूर हैं पर मजबूत हैं 
वाह! रे निर्माता तू , आज भी नहीं हारा..।

     
 ‌‌ सवेरा

मिटा अंँधेरा
हुआ सवेरा
क्षितिज में लाली छाई
हरी घास पर शबनम ने
चांदी सी परत चढ़ाई
खिल उठे वन उपवन
फूल कलियांँ मंद-मंद मुस्काई
पक्षी कलरव करने लगे
सरिताओं ने कलकल की धुन सुनाई
भंँवरों ने गुँजार किया
तितलियांँ रस लेने आई
सुबह-सुबह की ताजी हवा ने, सबका मन मोह लेने की कसम खाई
किरणों ने जाल बिछाया
उषा ने ली अंगड़ाई
अरे! आलसी, आलस्य त्यागो
उषा पनघट पर पानी भरने आई
जागो धरतीपुत्रो जागो
अपने-अपने कर्मों में कर्मशील हो जाओ
मिटा अंँधेरा
हुआ सवेरा
जागो जागो जागो..।
....
कवि - जगदीप सिंह मान 'दीप'
परिचय- हिन्दी शिक्षक, राजकीय बाल वरिष्ठ उच्च माध्यमिक विद्यालय, लाडपुर,  दिल्ली
शिक्षा निदेशालय, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, भारत।
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Friday 15 May 2020

हमारे दो दिवंगत लोकप्रिय अभिनेताओं के चित्र / नीवा श्रीवास्तव

इरफान खान और ऋषि कपूर 
पोर्ट्रेट 

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ये चित्र बनानेवाली कलाकार श्रीमती नीवा श्रीवास्तव एक चित्रकार हैं जो दुबई में रहती हैं.



Wednesday 13 May 2020

माँ की बात निराली / कवयित्री - प्रियंका श्रीवास्तव 'शुभ्र'

कविता 

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माँ की हर बात बड़ी निराली
भर देती जीवन में हरियाली।

जब कभी मैं होता विफल
माँ देती मुझको सम्बल।

जब कोई करता मुझको निर्बल
भर देती माँ मुझमें आत्मबल ।

मेरे हिस्से का गम भी पी लेती
हर कोशिश कर खुशियां देती।

पिता से भी मेरे लिए लड़ लेती 
हर दिन एक नया मन्नत करती ।

 भविष्य मेरा हो उज्ज्वल
हर दिन कुछ करती  नवल।

जब उसके प्यार में मैं हुआ वाचाल
मौन व्रत रख बंद किया बोलचाल।

उसकी मौन भाषा ने वो समझाया
जो अब तक था समझ न पाया।

माँ के मौन में होती बड़ी ताकत 
पछताता मन दूर होती आफत।

माँ के मौन में भी ताकत है बड़ी 
लगता खड़ी है हाथ में लिए छड़ी।

ऐसा नहीं कि खाया नहीं उससे डांट
गलती पर डांटी,खड़ी की मेरी खाट।

माँ का था ये प्यारा नुस्खा
आँखों से बरसे बन बरखा।

डांट कर उसकी आँखें हो जाती नम
फिर मैं सोचूँ दूर करूँ कैसे उसका गम।

फिर मैं पढ़ता हो जाता सफल
माँ खुश होती दुःख होता विफल।

माँ की खुशियाँ ही मेरा सम्बल
अब मैं भरता उसमें आत्मबल।
.....
कवयित्री - प्रियंका श्रीवास्तव 'शुभ्र'
कवयित्री का ईमेल आईडी - kinshukiveerji@gmail.com
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Monday 11 May 2020

युवा प्रतिभा: जगदीप सिंह मान / "माँ" और अन्य कविताएँ

कविताएँ

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1. माँ 

माँ तू स्नेह की सूरत है, तू ममता की मूरत है
तू पावन प्रीत निर्झरी है, मातृरूप अवतारी है
ये जग है ये कानन काँटों का
तू फुलवारी है, ओ माँ
माँ तू स्नेह की सूरत है,तू ममता की मूरत है।

मामूली नाम नहीं है माँ तू 
जीवन का सरताज है तू 
स्वर्ग सा बचपन मिला मुझे
इस वैभव की वरदानी है तू ,ओ माँ
माँ तू स्नेह की सूरत है, तू ममता की मूरत है।

मैं जब हंँसता हूंँ तू हंँसती है मांँ
मैं जब रोता हूंँ तू रोती है मांँ
मेरे कष्टों को अपने कष्टों पे वारी है
सब कुछ मेरे पे तू बलिहारी है, ओ माँ
माँ तू स्नेह की सूरत है, तू ममता की मूरत है।

माँ तू केवल प्यार नहीं है
मांँ तू बस श्रृंगार नहीं है
माँ तू जग की वो शक्ति है
जिसका पारावार नहीं है, ओ माँ
माँ तू स्नेह की सूरत है,तू ममता की मूरत है।

मांँ बिना प्यार कहांँ है ?
मांँ बिना सूना सारा जहाँ है
माँ ने कुदरत को रचा या कुदरत ने मात
धन्य वही है जो जान ले, दोनों के जज्बात,ओ मांँ
माँ तू स्नेह की सूरत है,तू ममता की मूरत है।


2 दीप का साहस

अंँधेरों का काम है, अड़चनें लगाना
है 'दीप' का काम जग में, रोशनी फैलाना
परीक्षा लेते हैं तूफान, तिमिर में दीप का
उसका काम है जलना, वजह भी यही होती है
है हवाओं को खबर, दीप की फतह ही होती है

दीप में देवताओं का तेज होता है
अंधकार को चीरने का वेग होता है
दीप के साहस का कोई जवाब नहीं है!

ढलते सूरज ने प्रश्न किया
सारे संसार को सन्न किया
मेरी ‌जगह कौन कार्य करेगा ?

तब एक कोने से दीपशिखा का सहारा लेकर
एक दीप निकलकर आता है
सूरज दादा! आप तो आप हैं,
सृष्टि के प्रारब्ध हैं, सृष्टि के तेज हैं,
जगत की आत्मा, अदिति के आदित्य हैं
मैं आपका स्थान नहीं ले पाऊंगा 
और न कोई ले पाएगा..

पर,
आपकी अनुपस्थिति में
 मैं कार्य करूंँगा
मैं दीप हूँ
रोशनी का मोहताज नहीं
जगमग सबको कर जाता है
तब तक दीपक जलता है
जब तक सूरज नहीं निकलता है।


कवि - गदीप सिंह मान "दीप"
परिचय- हिन्दी शिक्षक, राजकीय बाल वरिष्ठ उच्च माध्यमिक विद्यालय, लाडपुर, दिल्ली
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Saturday 9 May 2020

मनु कहिन (27) - मनोदशा

विमर्श 

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आपने अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुना होगा! आज मौसम बड़ा सुहाना है। बड़ा ही प्यारा मौसम है आज ! मौसम बड़ा ही खुशगवार है ! फलां फलां फलां। पर, भला यह कैसे हो सकता है! यह एक सब्जेक्टिव चीज है।आप इसे वस्तुनिष्ठ कैसे बना सकते हैं। हम यह जरूर कहते हैं कि सूर्य अस्त हो चुका है या फिर सूर्य उदय हो चुका है। पर, वास्तविकता क्या है। सूर्य न तो अस्त होता है ना ही उदय होता है। दुनिया के एक भाग मे अगर सूर्य अस्त होता है तो कहीं दूसरे भाग मे उदय होता है।  उसी प्रकार अगर मौसम सुहाना है, अच्छा है या फिर खुशगवार है तो इसका मतलब यह नही कि यह सार्वभौम है। यह तो आपकी और  हमारी मनोदशा के अनुरूप सोचने का नजरिया है। हम किस प्रकार से सोचते हैं? हमारा सोच कितने आयामों से गुजरता है ! यह हमारी और आपकी मनोदशा ही तो है !

उस किसान से जाकर पूछें जिसने अभी अभी फसल काटकर काटी हुई फसलों को दालान मे रख दिया है या फिर खेतों मे फसल पककर तैयार खड़ी हो और तभी इस सुहाने मौसम की बैमौसम बरसात ने उसके सपनों को चूर चूर कर दिया जो उसने देख रखे थे ! अब वो सर पर हाथ रख कर गंभीर चिंता मे डुबा हुआ है। भाई किसानों के सोच का दायरा ही फसल और खेतों के बीच घूमता रहता है! उसकी आशा और निराशा सबके मूल मे खेत, खेती और फसल ही तो है।

उस  मेहनतकश मजदूर से पूछें जो अमूमन आपको गांव के बाज़ार मे या फिर शहरों के मुख्य चौराहों पर एक भीड़ के रूप मे मिल जाते हैं!  उन्हें आज कोई काम नही मिल पाया। क्या खाएंगे उनके बच्चे आज ! स व्यक्ति से पूछें जिसका कोई अपना अस्पताल मे जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा है!  उस व्यक्ति से पूछें जिसके घर आज किसी की मौत हो गई हो!  वाकई मौसम सुहाना है! अच्छा है! खुशगवार है! पर, निर्भर करता है परिप्रेक्ष्य पर! 

अगर अकाउंट्स की बात करें तो क्या डेबिट का मतलब सिर्फ और सिर्फ जाने से है ? या फिर क्रेडिट का मतलब सिर्फ और सिर्फ आने से है ! नहीं! बिल्कुल नहीं! किसी के लिए डेबिट है तो किसी और के लिए क्रेडिट है। 

कहने का मतलब हर चीज के दो पहलू होते हैं। आपको इन्हें समग्र रूप मे देखना होगा ! चीज़ें वस्तुनिष्ठ नही हो सकती हैं। हम इंसान हैं! पशुओं की तरह व्यवहार नही कर सकते। हमारे सोचने का दायरा विस्तृत है, व्यापक है, सब्जेक्टिव है! आपका वक्तव्य वास्तव मे यह बताता है कि आपकी 'मनोदशा/ क्या है। व्यक्ति 'मनोदशा' से इतर नही सोच सकता है।
किसी ने 'मनोदशा' के संदर्भ मे क्या खूब कहा है!
"चांदनी रात मे बरसात बुरी लगती है !
घर मे अर्थी हो तो बारात बुरी लगती है ! 
ऐ दोस्त मत छेड़ मेरे वीणा के तारों को 
 जब दिल मे दर्द हो तो हर बात बुरी लगती है !
........

लेखक - मनीश वर्मा 
लेखक का ईमेल - itomanish@gmail.com
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Friday 8 May 2020

तुम इश्क करने की सोचते हो नादान हो क्या / कवि - अमीर हमज़ा

हास्य-कविता 

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तुम इश्क करने की सोचते हो नादान हो क्या
उसे अपना  बनाना चाहते हो  नादान हो क्या

फिर फोन मैसेज  व्हाट्सएप व चैटिंग करोगे 
वक्त बर्बाद करना  चाहते हो  नादान हो क्या

जब छोड़ कर  जाएगी तुम  अश्क  बहाओगे
तड़प  कर जीना  चाहते हो  नादान  हो  क्या

तुम्हारे खून ए  जिगर से वह  मेहंदी  रचाएगी 
ज़हर ए जुदाई पीना चाहते हो नादान हो क्या

तुम्हारी हँसी खुशी जिंदगी  बर्बाद हो  जाएगी
पागल सा  हँसना  चाहते हो  नादान  हो  क्या

रात  भर  उसकी  याद  में  जुगनू  को  देखोगे
मजनू  सा मरना  चाहते  हो  नादान  हो  क्या

इश्क  का  समंदर   होता  है  बहुत  ही  गहरा
उसमें डूब जाना  चाहते  हो  नादान  हो  क्या

तुम  खूब पढ़ो  लिखों  शोहरत  हासिल  करो
अपनी नाक कटाना चाहते हो नादान हो क्या.
.......
कवि-   अमीर हमज़ा
कवि का ईमेल आईडी  - nirnay121@gmail.com
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