Saturday 28 December 2019

मनु कहिन (13) - प्रेमिका के इनकार पर आत्महत्या की सच्ची घटना पर प्रतिक्रिया

ज़िंदगी के थेपेड़े

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 पटना 28.12.2019. आज दोपहर की ही तो घटना  है। एक लड़के ने अपनी प्रेमिका के साथ हुई मामूली बहस के दौरान खुद को गोली मार अपनी जान ले ली।

क्यूं भाई, क्या हो गया है आजकल के लड़कों को? इतने इमोशनल क्यूं हो गए हो भाई! क्या मिला अपनी जान लेकर ! जिंदगी बड़ी ही अनमोल है! अगर, आप इतने मजबूत हो कि अपनी जान देने में थोड़ा सा भी वक्त नही लगाते हो, तो भाई फिर तो सोचने वाली बात है। इतनी कायराना हरकत क्यूं ? लड़की ने तुम्हारी बात नही मानी।बस इतनी सी तो बात थी। उसे लेकर इतना पोजेसिवनेस (अधिकार-भाव) क्यूं? क्या उसे यह अधिकार नही है कि वो अपने तरीके से, अपने दिमाग से सोच विचार कर निर्णय ले सके?

अपनी जान लेकर क्या मिला तुम्हें ! अपने परिजनों के लिए जिंदगी भर का दुख छोड़ गए। जब जब तुम्हारी याद आएगी, एक टीस सी उठेगी। एक हूक बनकर रह जाएगी तुम्हारी याद। फिर, जिसके लिए तुमने जान दिया, माना तुम उससे बेइंतहा प्यार करते थे! तभी तो ऐसा निर्णय लिया ! कभी एक पल के लिए भी सोचा, तुम्हारे इस तरह जान देने के बाद उसका क्या होगा? यह प्रेम लहरी पुलिसिया कार्रवाई मे उलझ कर रह जाएगी। किसी को कुछ नही मिला। नाहक जान दे दी। अरे, अभी तो जिंदगी शुरू हुई थी। बहुत आगे तक जानी थी। वैसे, तुम्हारा मरना ही शायद बेहतर था ! जिंदगी का सफर तो थपेड़ों के समान है। तुम कब तक बर्दाश्त कर पाते? जो जिंदगी का एक थपेड़ा बर्दाश्त नही कर पाया !

अब शायद, युवाओं के सोचने का वक्त आ गया है। अब भीड़ के पिछे चलने का नही वरन् नेतृत्व करने का समय है। अपने आप को , अपनी भावनाओं को संतुलित रखें। राह चलते यूं अचानक से अपनी जिंदगी कुर्बान न करें मेरे दोस्त! जब कभी ऐसी कोई समस्या आए, लोगों से बात करें। अपने आप से बात करें। हल जरूर निकलेगा। जिंदगी, यूं नही निकलेगी।
......

आलेख - मनीश वर्मा
लेखक का ईमेल - itomanish@gmail.com
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Saturday 14 December 2019

बड़प्पन की रीत / लेखिका - कंचन कंठ

अजब नियम का गज़ब पालन 

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नीलिमा एक पढ़ी-लिखी सुंदर और समझदार लड़की थी।पढ़ने के साथ - साथ बातें करना,तरह तरह की जानकारियां हासिल करना,निश्छलता से सबके संग घुल-मिल जाना उसे बहुत पसंद था।किसी से मिलने जुलने में कोई संकोच नहीं था। माता-पिता भी बड़े खुले विचारों के थे, उन्होंने बच्चों में ना कोई अंतर माना या रखा,जबकि तीन बेटियों के बाद बेटा हुआ था। बड़े अफसर थे और बच्चों को भी अच्छी परवरिश दी थी।

अब नीलिमा पी जी कर रही थीं,तो स्वभाविक है घर में शादी की चर्चा शुरू हो गई थी।पापा को मनमुताबिक लड़का ही ना मिले। कुछ तो अपने मयार का हो ,कि बेटी को किसी भी गढ्ढे-खाई में ढकेल दें! खैर, खोजते - खोजते उन्हें आखिर एक लड़का पसंद आ ही गया।

हां, थोड़ा सांवला था और ज्यादा लंबा भी नहीं,पर पढ़ाई, नौकरी, परिवार सब एक से बढ़कर एक! पांच छह भाई बहनों के परिवार में दो बहन-बहनोई तो डाक्टर थे, वह खुद टाप क्लास जाब में थे,पिता भी कलक्टर थे। दोनों ही परिवार हर लिहाज से एक बराबर थे। नीलिमा की खुशी का तो ठिकाना नहीं रहा,बिना देखे ही अपने सांवरे की दीवानी हो गई।शादी के बाद जब ससुराल आई तो, घर की बड़ी बहू रानी थी और इस क्षेत्र में सास का एकाधिकार था, वह किसी की दखलअंदाजी पसंद नहीं करती थीं। पति ने भी मां की आज्ञा पर चलने की सलाह दी।सारे रीत रिवाज निभाने पड़े,कई सारी रस्में करने को थीं। उसने सब खुशी खुशी निभाए,सास बड़ी सुंदर थीं और लोगों में खुद को एडवांस भी दिखाया करतीं, याने "हाथी के दांत" वाला मामला था। 

सब कुछ तो नीलिमा निभा ले रही थी ,पर उसे एक बात समझ नहीं आती थी कि सब अगर एक साथ बैठे हैं, तो उसे नीचे बैठने को क्यों कहा जाता है,जबकि इत्ते बड़े से सोफे या पलंग पर जगह ख़ाली रहती थी! ये कौन सी मर्यादा थी कि बहू के साथ बैठने से भंग होती थीं, इसमें किसी का क्या अपमान होता था!अपनी उलझन किससे कहें! पतिदेव तो छुट्टी खत्म होते ही ,असम चले गए।ना मायका पास में ,ना यूं घड़ी - घड़ी फोन करने की सुविधा थी पहले! बड़ी परेशान रहती थी,उसे ये बड़ा खराब लगता कि सास चट से टोक दें,बहू इज्जत करना सीखो और उसे नीचे बैठना पड़ता था।अब बड़े घर की पढ़ी-लिखी लड़की थी ,जाहिलों की तरह लड़-भिड़ तो सकती नहीं थी।बड़ी परेशान थी मन-ही-मन!

संयोगवश,उसी शहर में उसके एक चाचा का तबादला हुआ, उन्होंने उसके पूरे परिवार को खाने पर बुलाया। नीलिमा को बड़ी खुशी हुई कि अरसे बाद मायके का कोई तो मिला!इस चाची से उसकी खूब घुटती भी थी।सब वहां गए, खाने-पीने के बाद चाची ने आग्रह करके उसे दो चार दिन रहने देने के लिए उसकी सास को मना लिया। 
ह ह ह, सांस में सांस आई जैसे,नीलु की बातें तो खत्म ही नहीं हो रही थीं।चाची ने फिर ससुराल के बारे में पूछा तो वो फूट पड़ी ।उसने इस रिवाज के बारे में बताया तो चाची हैरान रह गईं कि अब भी इतने पुराने और बेतुके रिवाज को कैसे ढो रहे हैं!सामने तो इतने प्रगतिशील बनते हैं।पर वो भी ठहरीं परम बुद्धिमान,समझा बुझा कर,  घुमा फिराकर,कुछ नई -नई रेसिपीज सीखाकर, दो चार दिन बाद देवर लेने आया तो बिटिया को भेज दिया।

कुछ दिनों बाद घर में कुछ ऐसे मेहमान के जो ससुर जी के आफ़िस से थे। दरअसल जिला मुख्यालय तो था ,पर तभी अपने यहाँ इतने अच्छे रेसिडेंशियल होटल कहां होते थे कि परिवार सहित ठहरा जाए,तिस पर साहब की पत्नी से सासूमां का भी दोस्ताना था। फ़िर नई बहू को भी देखने आई थीं, सो घर में ही ठहराए गए। नीलिमा ने भी अच्छी खातिरदारी की ,चाची की रेसिपीज बड़ी काम आईं।अब तीन - चार दिनों के लिए आए थे, आफ़िस का काम निबट गया तो तय हुआ कि अगली सुबह सब साथ में जनकपुर चलें, आउटिंग भी हो जाएगी और तीर्थाटन भी!

सब बड़े खुश जे, बहुत दिनों के बाद बाहर जाने का मौका हाथ आया था। तुरत अर्दलियों को इस सब की जानकारी दी गयी।आठ दस जने थे, तो दो गाड़ियों को तैयारी रखने की हिदायत दी गयी। एक में महिलाएं और दूसरी गाड़ी में पुरुष रहेंगे; जिनका अनुसरण करती महिलाओं की गाड़ी जाएगी।

सुबह - सुबह सब नियत समय पर निकले।सास,ननद और उनकी सहेली के बैठने के बाद,नीलिमा पायदान पर बैठ गई, सास चिल्लाईं, "क्या कर रही हो ,सीट पर बैठो?" "पर मांजी इस तरह तो आप सबका अपमान होगा और मैं बड़ों का अपमान कैसे करुं!" नीलिमा के इस जवाब से सास की सारी कलई खुल गई।उनकी तेज आवाज से ससुर तथा अन्य लोग भी आ पहुंचे‌।ससुर जी भी झेंप गेए और सास को ही डांट लगाई और बहू को इन बकवास नियमों का पालन ना करने को कहा। 
.................
लेखिका - कंचन कंठ
लेखिका का ईमेल - kanchank1092@gmail.com
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Wednesday 4 December 2019

खोज एक बचपन की / युवा कवि - विजय बाबू

खोज एक बचपन की

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बचपन - मन की नादानी
अरमान भरे पल रूहानी
यादें हुई न अभी पुरानी
बात आगे करें दिन में जो आना बाकी ।

बिंदु-सा बिन आकार की
रही अजूबा एक कहानी
रेखा-सी पतली डगर अपनी
बीत चुके कुछ पल और आगे है बाकी 

दादी नानी कहती कहानी
सुनते किस्से उसकी जुबानी
राजा दुलारा, दुलारी रानी
वक़्त वक़्त की बातें है अभी और बाकी ।

मासूमियत भी भोली सी
लिखते पढ़ते हूई सयानी
चंचल मन चले राह जवानी
जीवन कारोबार में वसूल अभी और बाकी 

बढ़ता कारवाँ दौलत का
बढ़ती कश्ती शोहरत की
मंज़िले जैसे बहता पानी
छूटते बनते रिश्ते हैं अभी और कुछ बाकी 

बुलंदी चाहे हो आसमानी
चहकती दुनिया सतह पर यहीं
पाकर मन करता मनमानी
जैसे कतार में अरमान है न और बाकी
......
कवि - विजय बाबू
कवि का ईमेल - vijaykumar.scorpio@gmail.com
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Tuesday 19 November 2019

अभी मन कुछ डोल रहा है / पूनम कतरियार की दो कवितायेँ

श्श्श्श....चुप्प...

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श्श्श्श...चुप्प...
अभी मन कुछ डोल रहा है
मस्तिष्क भी कुछ बोल रहा है
बरसों दफन था ,जो दर्द  सीने में
उसे आज  मौन  तौल  रहा है

श्श्श्श....चुप्प....
सांसें कुछ-कुछ चढ़ी हुई है
बातें बहुत कुछ गड़ी हुई हैं
घुटी -घुटी  हैं आवाज  गलें में
जाने कब से उंघती पड़ी हुई हैं

श्श्श्श .....चुप्प......
अरे, अनल  है कहीं भभका
हां,कुछ दिख गया भीतर का
नया सबेरा दस्तक दे रहा
चल,खोलें द्वार हम जीवन का.
.....
             

मैं 'भारत'


सुवर्ण- खचित, अभिराम, निष्कलुष
मेरे मस्तक पर शोभित हिमकिरीट
दसों दिशि प्रशंसित-स्नेहसिक्त
गर्वोन्नत ग्रीवा, मैं 'भारत'!

युवा-उष्ण-ऊर्जा से गुंफित
उत्कट अभिलाषा से संचित
गौरवपूर्ण-उपलब्धियों का प्रकाश
अशेष विजयों का स्वर्ण-इतिहास

मेरी गोद, हुलसे है किलकारियां,
खेतों में हैं पुलकित स्वर्ण-बालियां.
हैरान संसार मेरे अध्यातम-ज्ञान से,
सुरभित विश्व मेरे केसर- गंध से

मेरे चरणों पर है सागर नत 
मेरे हुंकार से है दुश्मन पस्त
मेरा चंद्रयान छू रहा ब्रह्मांड
नहीं सका कोई मुझे कभी बांध.
.....
     
कवयित्री - पूनम (कतारियार)
कवयित्री का ईमेल - poonamkatriar@yahoo.com
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चलूँ ‘मैं’ को ढूँढने / *युवा प्रतिभा*- विजय बाबू

कविता 

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दुनिया मीटर फीते सी
रफ्तार भी उसी की जैसी 
कभी धीमी कभी तेज
पाने कुछ बहुत घुमाती 

घूम रही ज़िन्दगी की धुन
गाये सब मन में गुनगुन
मिले खुशी और सहे गम
सीढ़ी-दर-सीढ़ी लक्ष्य को बढ़ें हम  

लक्ष्य मुक्कमल जहां का 
खुशियों के आसमां का 
थोड़ा मलाल भी मन में
खोते नज़ारा कहाँ कहाँ का ? 

आकाश सा मुकाम ऊंचा 
एहसास अपनी जिंदगी का 
गुणा-जोड़ करते करते
खुद को खुद में तलाशते

मुक्कमल आसमाँ निहारते
 हासिल की बुलंदी में भी
क्या खोया क्या पाया
गुमसुम मन खुद से पूछता 

आओ चलो लौट चलें
बुलंदी भी एक भँवर सा 
भीड़ से बहुत आगे क्यों
आखिर ये कारवां बढ़  चला 

लौटा गगन की ऊँची मंजिल से
प्रगति की वापसी राह पर
देखे मन हर एक का मुकाम
चुपके से खुद को निहारता 

बढ़ती उम्र अनुभूति करती 
जीवन है मन की दुनिया 
सोचती व कहती खुद से
मन ही मन 'मैं' को तलाशती
..........
कवि- विजय बाबू
कवि का ईमेल - vijaykumar.scorpio@gmail.com
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Thursday 14 November 2019

अतीत - बाल दिवस (14 नवंबर) पर विशेष कविता

अतीत
बाल दिवस  की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं!
(यह दिवस भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन पर मनायस जाता है।)
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अतीत के पन्ने पलटते ही
मेरा बचपन मुस्कुराया
उसने दी फिर मधुर आवाज
जब खेला करते थे दिन-रात
कभी आँख मिचौली का खेल तो
कभी गेंद आसमान में देते थे उछाल
कभी खो-खो कबड्डी में करते थे कमाल
तो कभी चोर - सिपाही बन खुद का मन बहलाया

कैरम में खो जाते थे रानी को घर लाते थे
और न जाने कितने खेलों में रम जाते थे
बिजली गुल हो जाने पर अंताक्षरी का खेल -खेलकर
गीतों को गुनगुनाते थे, डर को दूर भगाते थे
मात-पिता के संग बैठ कर तारों से बतियाते थे

गणित के सारे अंक तारों में नजर आते थे
"चंदा मामा दूर के" मधुर गीत वो गाते थे
भाई -बहन के संग मिल सपनों में खो जाते थे
बीत गए वो दिन सारे, ले लिया रूप अतीत का
पर अब भी खड़ा वहाँ पर मेरा बचपन आवाज दे रहा।
.....
कवयित्री - आभा दवे
कवयित्री का ईमेल - abhaminesh@gmail.com
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Wednesday 6 November 2019

छठ का प्रसाद और डाक पार्सल / हास्य-कथा

"परसाद पर तो सबका हक होता है न!

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जैसा अद्भुत पर्व है "छठ",चार दिनों की कठिन तपस्या, अखंड निर्जल व्रत! कहीं दंड प्रणाम  तो कोई सिर्फ जल में खड़ा हो रहा, तो कोई जल में घंटों खड़े रहकर सारे मानता के कोनिया, दौरा, सूप,तो नारियल अर्घ्य के साथ सुरुजदेव को चढ़ाता है।

और छठ की समाप्ति के साथ मिलता है आशीष के संग संग अंकुरी ,फल और उम्म्म .....घी में बने हुए अपूर्व स्वाद से भरपूर ठेकुआ! जितना मनभावन सुगंध होता है उतना ही मजेदार स्वाद! हम बिहारी इसे कभी-कभी यूं भी बनाया करते हैं। पर छठके ठेकुए जैसा स्वाद नहीं मिलता! लोग-बाग निस्संकोच विभिन्न घाटों पर घूम घूमकर प्रसाद मांग कर लेते हैं।

मेरी पड़ोसन और मित्र रीना के मायके में छठ होता था तो अकसर वो चली जाया करती और मायके की याद के संग प्रसाद भी लाती। पर सब दिन तो एक समान नहीं रहता,तो इस बार कुछ व्यस्तताओं के कारण घर नहीं जा पाईं। बड़ी दुखी हुईं और माँ से बराबर दुख व्यक्त करती रहीं। 

मां को भी बेटी पर पूरा ध्यान था सो  छठ के बाद मां ने एक बड़े डब्बे में भरकर बिटिया को पार्सल कर दिया। रीना को पता चला तो बड़ी गुस्सा भी हुईं कि इतनी-सी बात के लिए यूं हैरान-परेशान होने की तो जरुरत क्या थी!पोस्टल डिपार्टमेंट का क्या भरोसा; मिले ना मिले! फिर सबको बार-बार खुशी से आश्वासन भी देती थी कि पार्सल आएगा तो सबको बाटुंगी!

एक दिन शाम की चाय के बाद हमारे घर से अपने फ्लैट में पहुंचीं तो बगल वाली ने बताया; "अरे कहां थीं आप,अभी -अभी डाकिया पार्सल वापस ले गया।देखो, अभी मेन गेट पर नहीं पहुंचा होगा।" बेचारी रीना सरपट भागीं और डाकिया मेन गेट पर ही मिल गया। उसने फटाफट उसके कागज पर दस्तखत किया और पार्सल लेने को हाथ बढ़ाया।

हे भगवान! यह क्या पार्सल तो फटा हुआ है! एक बड़ा-सा स्टील का डब्बा, जिसमें कुछ नहीं तो चालीस-पचास ठेकुआ होता; उसमें बमुश्किल आठ -दस ठेकुआ ही हैं! वो तो उबल पड़ीं डाकिये पर,"ऐसा कैसे? मैं कंप्लेन करुंगी।" 

डाकिये ने इत्मीनान से कहा "अच्छा है, फिर ये डब्बा मुझे दे दो; वैसे भी परसाद पर तो सबका हक होता है न! जैसा मिला,लेकर आया हूं और अब तो वो भी नहीं मिलना।"

मरता क्या न करता, बेचारी हारकर पार्सल लेकर सलमा आगा बनी हुई चलीं आ रही थीं -
"दिल के अरमां आंसूओं में बह गए SSS"
......

लेखिका - कंचन कंठ
लेखिका का ईमेल - kanchank1092@gmail.com
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Sunday 27 October 2019

रौशनी का पावन पर्व है / कवि - आनन्द रंजन 'पथिक'

कविता

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रौशनी का पावन पर्व है
किरण खुशियों के बिखेरें
उम्मीदों से लबरेज़ दीये से
सुंदर कल के चित्र उकेरें

मौका लक्ष्मी पूजन का है
तिजोरी को भी साजे सँवारे
फल तो आपकी मेहनत का है
आस्था को पर न कमतर आंकें

श्रीगणेश नवजीवन का है करना 
राह पथरीली सही पग बढाये चलें
दीपावली का पावन त्यौहार है
शुभकामनायें 'पथिक' की स्वीकार लें

ग़म में भी उल्लास खोज लें
उमंगों से उच्छ्वास करें
चाहे कितना भी कठिन समय हो
अपने ईश्वर पर विश्वास करें 
...
कवि - आनंद रंजन 'पथिक'
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Photo courtesy - Sri Amar Kr. Das

दीपावली का चित्र साभार - स्वरम उपाध्याय के वाल से /
संदेश - आतिशबाजी का उपयोग कम से कम करें ताकि अपने फेफड़ों को हम बचा सकें और जीवित रह पाएँ

Saturday 26 October 2019

दीपावली मंगलमय हो! / कवि - बाबा बैद्यनाथ झा

"कुण्डलिया छन्द"

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               १                 
दीप  जलाएँ  नित्य  ही,  मिलने  पर  अवकाश।
ज्योति जले जब ज्ञान की, तब हो दिव्य प्रकाश।

तब   हो  दिव्य  प्रकाश, दिलाएँ  सबको शिक्षा।
बाँटें   प्रतिदिन  ज्ञान,  योग्य   से  लेकर  दीक्षा।।

जहाँ   अशिक्षित  लोग, गाँव  में  उनके  जाएँ।
देकर  शिक्षा  दान,  ज्ञान   का    दीप  जलाएँ।।

             २                
आती   शुभ   दीपावली,   दीप   जलाते  लोग।
एक  वर्ष   के   बाद  ही, आता यह  शुभ योग।।

आता यह शुभ योग, क्षणिक द्योतित जग होता।
            जले  ज्ञान  का  दीप, शुभ्र ज्योतित  मग होता।           

दिव्य ज्ञान  की ज्योति, सदा  सबको  है भाती।
रखता   है  जो  पास,  प्रतिष्ठा   दौड़ी   आती।।
....
कवि - बाबा वैद्यनाथ झा
कवि का ईमेल - jhababa55@yahoo.com
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दीपावली के दीप / कवयित्री - सुमन यादव

कविता

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 इस दीपावली के दीप कुछ ऐसे हों 
जैसे फिजाओं में बहार हो 
खुशियों का उन्माद हो 
पूरे जहाँ में प्रकाश हो

इस दीपावली के दीप कुछ ऐसे हों 
जैसे जगमगाती रात हो 
दीपों की बारात हो 
अपनों का साथ हो 

इस दीपावली के दीप कुछ ऐसे हों 
जैसे जन-जन में प्यार हो 
भाईचारे की मिठास हो
मानवता का पाठ हो 

इस दीपावली के दीप कुछ ऐसे हों 
जैसे दीन के घर पकवान हो 
दरिद्रता का नाश हो
समृद्धि का वास हो 

इस दीपावली के दीप कुछ ऐसे हों 
जैसे मन में विश्वास हो
उल्लास-उमंग की बौछार हो 
शूरता की धाक हो 

इस दीपावली के दीप ऐसे हों 
जैसे कोई ना निराश हो 
पूरी सबकी आस हो 
मुस्कुराहट बेशुमार हो.
...
कवयित्री - सुमन यादव
पता - मीरा रोड, मुम्बई
व्यवसाय - शिक्षिका 


Friday 25 October 2019

दीप / कवि - विजय बाबू

कविता 

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जग में हलचल ला रहा हूँ
फिर से अमावस के सहारे
रात को रौशन करने फिर
इक नया दीप जला रहा हूँ 

इक नयी आस रख रहा हूँ
दिल से ख़ुशियाँ पाने को
संग नयी उमंग जगाने को
इक नया दीप जला रहा हूँ ।

बस पल की खुशी पा रहा हूँ
दिल से मेरे अपनो के बीच
शाम ढलने के बाद मिल के
इक अलग दीप जला रहा हूँ 

इक रात यूँ फिर बिता रहा हूँ
जलाने दीप की रौशनी घर घर
बुझते लौ की तेज़ जलाने दीप
इक नया दीप जला रहा हूँ ।

इक दीप फूल सा जला रहा हूँ
खिलती कलियों की सी परिधि में
ख़्वाब को हकीकत में बदलने
इक खिला दीप जला रहा हूँ

अपनो को सपनो में देख रहा हूँ
फिर से बार बार यूँ हीं मिलने
गाने वही एक राग फिर मिल के
इक नया दीप जला रहा हूँ
...
“आप सभी को मेरी ओर से दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!”
कवि - विजय कुमार 
कवि का ईमेल - vijaykumar.scorpio@gmail.com
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दीपावली का चित्र साभार - स्वरम उपाध्याय के वाल से


Thursday 10 October 2019

मनु कहिन (12) - मेरे घर का पता

आपके घर का पता !


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आपके घर का पता ?
ओह! आपके न चाहने पर भी बदलता ही रहता है। 
आम आदमी का पता है ये! फितरत इसकी बदलने की है।

अब, देखिए न! जो पता पहले एक अदद कार के शो रुम के सामने का था, कुछ समय के अंतराल पर बदल कर किसी और कार के शो रुम के बगल का हो गया।

कुछ ही समय तो बीता होगा भाई, वो पुनः एक बदलाव के साथ, अस्पताल के सामने हो गया। 

चलिए, बात यहीं पर अगर खत्म हो जाती। नही! बिल्कुल नही। उसे फिर बदलना था ! अब  उसका नाम एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर के साथ जुडऩे लगा। साथ ही साथ एक बैंक ने भी उसमें घुसपैठ कर ली। 

पता नही, कब तक! आखिर, कब तक यह बदलाव जारी रहेगा। अब तो लोगों को घर का पता बताने मे भी सावधानी बरतनी पड रही है। कहीं लोग यह न पूछ बैठे, "बहुत घर बदलते हो यार!" 

अब  किस-किस को बताऊँ अपना नया @ घर यानी अपने बदले हुए घर का पता?

काश! एक बडा सा  अदद बंगला बनाया होता! शायद तब वो अपने आप मे ही @ घर होता जिसका पता शायद बारंबार नही बदलता! पहचान का संकट नही होता! बार-बार पहचान बताने और कराने की कोशिशें नही करनी पड़ती! 
हाय @ मेरा घर! (मेरे घर का पता.)
अब, भाई साहब! आप नही पूछेंगे ? - @ आपका घर?
यानी मेरे घर का पता? 
......

आलेख - मनीश वर्मा
लेखक का ईमेल - itomanish@gmail.com
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Wednesday 9 October 2019

दर्द तो है / कवि - विजय बाबू

कविता 

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ज़िंदगी है क़लम से, क़लम की धार से
भीड़ में जाकर भीड़ से ही निकल सकूँ
लिख सकूँ कुछ आगे व पीछे हटकर
पाकर भी कुछ खोने का... दर्द तो है।

जीने का बहाना ढूँढता है मेरा मन
आगे चलने का इरादा रखता है मेरा मन
रुकता है, ठहरता है उठता है बार-बार
बढ़े तो कहे, रुके तो कहे... दर्द तो है

मासूमियत मन की कहे- जी सकूँ मर्ज़ी से
मजबूरियाँ तके अपना वजूद संघर्ष से
स्वप्निल मन की मंज़िल रहे सदा संघर्षरत
मुक़ाम भी मुकम्मल नहीं... दर्द तो है।

नदी की धार में, पर्वत-घाटी की सैर में
मन को लुभाते रहते यूँ ही कुछ पल
चाहा जो मिला तो एक किनारे का सहारा
मिलकर भी पर अधूरी यात्रा... दर्द तो है
...
कवि - विजय कुमार 
कवि का ईमेल - vijaykumar.scorpio@gmail.com
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Tuesday 8 October 2019

दशहरा मुबारक / कवयित्री - अलका पाण्डेय

दशहरा 

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चित्र सौजन्य - विजय कुमार

आज आया दशहरे का पर्व
लोगो के दिलों में समाया हर्ष

सब मिल कर तम भगायेंगे
नव प्रकाश के दीप जलायेंगे

चारों और छाया है सच्चाई का रंग
झूठ का मूहं हुआ देखो कैसा बंदरंग

दशहरा है बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व
इस दिन सत्य की विजय व झूठ की हार का पर्व

आज हुआ था राम - रावण युद्ध का अंत
जीती सच्चाई थी मिली ख़ुशियाँ अनंत

झुठ के प्रतीक रावण को जलाते है
अत्याचार धोखा फ़रेब को जलाते है

सब मिल कर नया उत्सव मनायेंगे
सब मिल कर आओ झूमें नाचे  गाये

द़शहरा भक्ति व सच्चाई का प्रतीक
दशहरा सच्चाई की ताक़त की निशानी

पतन हुआ रावण का टूटा था अंहकार
रामराज्य का हुआ शिलान्यास

अंदर के रावण को हम जलायेंगे
अच्छाई के नये अंकुर दहकायेंगे

जल गई लंका, ढह गया रावण
राम का हुआ राजतिलक पावन

आया आज दशहरे का पर्व
लोगो के दिलो में समाया हर्ष.
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रामचंद्र की कहानी - अलका

मेरी अम्माँ मुझे बताती
रामचन्द्र की कहानी सुनाती
राम ने रावण को मारा
तोड़ दिया अभिमान सारा
बुराई पर अच्छाई की जीत
असत्य पर सत्य की जीत
आज के दिन राम रावण
युद्ध का हुआ था अंत
राम के हाथो रावण का अंत
बुराई का पुतला हम हर साल जलाते है
सच्चाई की जीत का जश्न मनाते है
रावण के हार की कहानी हमें याद दिलाती है
कितनी भी बड़ी हो बुराई सच्चाई से हार जाती है
कितना भी हो शक्तिशाली
झूठ से मात खाता मवाली
तेरह दिन भीषण युद्ध हुआ
फिर रावण का अंत हुआ
सत्य को करो कितना भी प्रताड़ित
कर न सकेगा सत्य को पराजित
तेज उसका निंरन्तर निखरता रहेगा 
संकटों से लड़ कर शक्तिशाली बन जाते है
संघर्षो की डगर पार कर नंई मंजिल पा जाते है
मेरी अम्मा मुझे बताती
रामचंद्र की कहानी सुनाती.
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कवयित्री- अलका पाण्डेय
कवयित्री का ईमेल - alkapandey74@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com