कविता
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बेघर हूँ बन गया पथिक
हाँ मैं हूँ लाचार श्रमिक।
हर निर्माण में करूँ योगदान
उद्योग सड़क या हो मकान ।
जाने कैसा टूटा ये कहर
जर्जर हो गया मेरा घर
भाँप कर मेरी वेदना
दी जी भरकर संवेदना
न मिली मदद मुझे इस पहर ।
तोड़कर अपना आशियाना
छोड़कर अपना ठिकाना
निकल पड़ा करने मैं सफर
था ज्ञात मुझे लम्बी है डगर
स्वजन - परिजन थामे हाथ
मिला अपने जैसों का साथ
साहस हिम्मत और धैर्य
इतना बटोर बढ़ चले पैर ।
संकल्प मन में ठाना था
कठिनाइयों से अनजाना था
निराहार निर्जल था ये व्रत
हो चला था मैं भी क्षत - विक्षत
बच्चों की देख मैं सूरत
ली प्रेरणा कर ली हिम्मत
साहस हिम्मत और धैर्य
इतना बटोर फिर चले पैर ।
दिन बीते पर न टूटी आस
कर संघर्ष पहुंचा आवास
यूँ लगा कि जैसे भोर हुई
नव दिन निकला नव आस बँधी
अब थी एक नयी तलाश ।
घर पहुँच गया
पर हाय ! ये पेट की आग
फिर मुझे पड़ेगा संवारना
परिवार घर को संभालना
करना फिर मुझको योगदान
करना नित मुझको नव निर्माण ।
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कवयित्री - दीपा आलोक
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