Monday 18 May 2020

श्रमिक / कवयित्री - दीपा आलोक

कविता 

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बेघर हूँ बन गया पथिक 
हाँ मैं हूँ लाचार श्रमिक।
हर निर्माण में करूँ योगदान 
उद्योग सड़क या हो मकान ।

जाने  कैसा टूटा ये कहर 
जर्जर हो गया मेरा घर 
भाँप कर मेरी वेदना 
दी जी भरकर संवेदना 
न मिली मदद मुझे इस पहर । 

तोड़कर अपना आशियाना 
छोड़कर अपना ठिकाना 
निकल पड़ा करने मैं सफर 
था ज्ञात मुझे लम्बी है डगर 
स्वजन - परिजन थामे हाथ 
मिला अपने जैसों का साथ 
साहस हिम्मत और धैर्य 
इतना बटोर बढ़ चले पैर ।

संकल्प मन में  ठाना था 
कठिनाइयों से अनजाना था 
निराहार निर्जल था ये व्रत 
हो चला था मैं भी क्षत - विक्षत 
बच्चों की देख मैं सूरत 
ली प्रेरणा कर ली हिम्मत 
साहस हिम्मत और धैर्य 
इतना बटोर फिर चले पैर ।

दिन बीते पर न टूटी आस 
कर संघर्ष पहुंचा आवास 
यूँ लगा कि जैसे भोर हुई 
नव दिन निकला नव आस बँधी 
अब थी एक नयी तलाश 
घर पहुँच गया 
पर हाय ! ये पेट की आग 
फिर मुझे पड़ेगा संवारना 
परिवार घर को संभालना 
करना फिर मुझको योगदान 
करना नित मुझको नव निर्माण ।
.....

कवयित्री - दीपा आलोक 
कवयित्री का ईमेल आईडी - deepaalok2@gmail.com
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कवयित्री - दीपा आलोक