Tuesday 29 September 2020

कोलकाता डायरी - तीरेती बाजार (चाइना बाजार), कोलकाता / मनीश वर्मा

यात्रा-वृतांत

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महानगरों की एक खासियत होती है - स्वीकार्यता! शहर कोलकात्ता, अपवाद नही है . आप किसी भी धर्म,  मजहब,  संप्रदाय और जाति विशेष  के हों, यह शहर दिल खोल कर आपका स्वागत करता है! हां, पर अपने खालिस बंगला संस्कृति को बचाए रखने के लिए कोई मुरव्वत भी नही करता है! यहां पर आप पहले बंगाली हैं , फिर कोई और ! बात चाहे भाषा की हो या फिर संस्कृति की!

कोलकाता डायरी के इस सफर में हमारा अगला पड़ाव है तीरेती  बाजार! पुलिस मुख्यालय, लाल बाग, पोद्दार कोर्ट  के पीछे का , मध्य कोलकात्ता का एरिया!

यहां  रिपब्लिक ऑफ चाइना के प्रथम राष्ट्रपति श्रीमान सुन-यात-सेन के नाम पर एक गली है ! इस गली को इस शहर के लोग चाइना बाजार या ब्रेकफास्ट गली के नाम से जानते हैं. हालांकि, आमतौर पर कोलकाता शहर के भद्र जनों के लिए सुबह थोड़ी देर से होती है! पर, यह मार्केट सुबह-सुबह के नाश्ते और अन्य घरेलू चाइनीज खाद्य पदार्थ के सामानों के लिए प्रसिद्ध है. यहां पर आप विभिन्न प्रकार के चायनीज व्यंजन का आनंद उठा सकते हैं.

सुबह सुबह  विभिन्न प्रकार के चाइनीज नाश्ते की एक पूरी की पूरी श्रृंखला मौजूद होती है. विभिन्न किस्म के मोमोज से लेकर, तरह-तरह के सॉसेज और  चावल और तिल के बीज से बने मीठे तक. नाॅन वेज और वेजिटेबल आइटम्स की एक पुरी रेंज मौजूद है , शुद्ध और एकदम प्रमाणिक! यह एक ऐसा बाजार है जहां पर आप सिर्फ और सिर्फ चाइनीज लोगों के द्वारा ही बाजार लगा हुआ पाएंगे, पर वे भारतीय हैं. यह देश उनका भी है! यह शहर उनका है!  एक तरफ जहां हम चीन के बहिष्कार की बातें करते हैं. उनके सामानों के बहिष्कार की बातें करते हैं! पर, यहां यह देखना काफी सुखद होता है, इन लोगों के द्वारा अहले सुबह नाश्ते के लिए लगाया गया  बाजार. चीनियों के कोलकाता शहर में आने की शुरुआत 19 वीं शताब्दी के आसपास हुई थी. लगभग 1920 ई. में . कोलकात्ता शहर से कुछ दूरी पर बजबज नामक स्थान पर , वारेन हेस्टिंग्स के समय मे  टोंग अची ने सर्वप्रथम चीनी मिल की स्थापना की थी. आज भी वहां उनका एक पूजा स्थल है! बजबज मे आज भी चीनी समुदाय के लोग वहां आकर अपना नव वर्ष मनाते हैं.

अपने कोलकात्ता प्रवास के दौरान जब मैं यहां पहुंचा तो मैंने सोचा कहीं देर ना हो जाए, इसलिए मैं अहले सुबह 6:00 बजे ही वहां पहुंच गया. हालांकि, मुझे थोड़ी निराशा हुई. कोरोना की वजह से दुकानें पुरी तरह नही खुली थी   सब्जी मंडी सज ही रही थी.  एक तरफ चिकन तो दूसरी ओर विभिन्न किस्म की मछलियां बेची जा रही थी.  एक कोने पर मैंने सुअर को कटते हुए देखा. जो दुकानें लगी हुई थी उन्हीं लोगों मे से कुछ से मैंने बातें भी की. कुछ लोग बाहर से भी ग्रुप में आए हुए थे. लड़कों का एक ग्रुप.  ऐसा लग रहा था कि वह दूर से आए हैं . आजकल के युवाओं की पसंद बुलेट! जी हां , आठ- दस बुलेट बाइक पर सवार लगभग पंद्रह युवाओं की टोली वहां आई हुई थी. वे सभी इस बाजार मे विभिन्न किस्म के नाश्ते का लुत्फ उठाने कहीं दूर से आए हुए थे.  रविवार का दिन था . और जैसा हमे मालूम था , रविवार के दिन इस बाजार मे रौनक रहती है. पर, कोरोना ने यहां भी अपना खौफ बरकरार रखा था. दो प्रमुख दुकानें - Hop Hing और Pau Chong Store जिन्हें Pau Chong Brothers ने शुरू किया था  विभिन्न प्रकार के सॉसेज एवं राइस नूडल्स की दुकान. पर,वो बंद थी. थोड़ी निराशा हुई. पर, अगली मर्तबा आने का एक रास्ता भी रहा.
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लेखक - मनीश वर्मा 
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मजदूर / कवयित्री - चंदना दत्त

 कविता 

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चेहरे पर धूल 
होठों पर शूल 
ये कर्मयोगी नही 
मजदूर है।

चले सपने लिए 
दिल में हजार 
छोड अपना प्यारा 
घर बार 
ये यात्री नहीँ  
मजदूर है ।

बनायें इमारतें 
बहुमंजिली 
चूता है छप्पर 
खाट की रस्सी ढीली 
ये अभियंता  नही 
मजदूर है ।

परोसता होटलों मे 
ये है छप्पन भोग 
पेट पाले है अपना 
सूखी रोटी दाल का योग 
ये योगी नही 
मजदूर है।

बांटता अखबार 
होकर सायकिल सवार 
लाखों  करोड़ों की लाटरी 
निकालता बेशुमार 
ये जादूगर नही 
मजबूर  है 
...
कवयित्री - चंदना दत्त 
पता - रान्टी, मधुबनी
कवयित्री का ईमेल आईडी - duttchandana01@gmail.com
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Sunday 20 September 2020

दि ब्लेड रनर / लेखिका - कंचन कंठ

प्रेरक कहानी 

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"कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है-फिर बीच-बीच में वो किधर जाता है!" "मैंने जान निकाल लेनी है तेरी-" रीमा जोर से अपने भाई सनी पर चीखी,जिसने उसके गाने की कोशिश पर टपककर उसका सत्यानाश कर दिया था।

वो था ही इतना चंचल, मुंहफट और रीमा से तो- उफ्फ ; भगवान बचाए, बिल्कुल छत्तीस का आंकड़ा था! दिन में कितनी बार तो दोनों में ये रस्साकशी चलती ही रहती थी। शैतानियां भाई से छुटती नहीं थीं और बहन से बर्दाश्त नहीं होती थीं।बचपन तो बचपन, अब तो दोनों कॉलेज में आ गए थे, पर ये कुत्ते बिल्ली का खेल चलता ही रहता था।

रीमा बड़ी मेहनती थी और अपने पढ़ाई और ग्रेड्स को लेकर चिंतित रहती थी, वहीं सनी झट से बोल देता ; "अरे भाई, तू मुझे चपरासी रख लेना, हम्म्म नहीं तो शोफर रख लेना अफसर बनकर! जब तू है तो क्या गम है !" फिर जीभ चिढ़ाकर भाग जाता। मम्मी-पापा किसी के समझाने का कोई असर नहीं। सब अक्सर उसके खिलंदड़पन से परेशान थे।

वैसे वो ठहरा स्पोर्ट्स में चैंपियन और उसी बलबूते उसके कई काम भी हो जाते! उसने स्टेट लेवल पर मैराथन में कई सारे गोल्ड लिए थे और अब नैशनल्स के लिए लखनऊ से दिल्ली जा रहा था। उस समय मुख्य अतिथि खेल मंत्री ने तो उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की। उसे इस स्पर्धा में भारत का भविष्य बताया। यह स्पर्धा का पहला राउंड ही था, तो खिलाड़ियों को टिकट्स वगैरह खुद कराना था।

नियत समय पर "वैशाली एक्सप्रेस"रवाना हुई, सब बड़ा अच्छा लग रहा था। सनी भी पूरी मौज में था। उसने गाना शुरू किया, तो लोग एकदम से आकर्षित हो गए,आखिर मंझे गले का वरदान जो पाया था, मां सरस्वती से!
अच्छी कद-काठी और इस सुरीले गले से लोगों का तो दिल जीत लिया उसने! सब उसकी प्रशंसा करने लगे, कइयों ने सेल्फी लेनी शुरू कर दी और उसके सुनहरे भविष्य की मंगलकामना भी की।

यूं ही सफर हंसी-मजाक में कटता जा रहा था,अब रात गहराने लगी थी कि पता नहीं कहां से कुछ गुंडे ट्रेन में घुस आए और लगे महिलाओं और लड़कियों के गहने छीनने! साथ-साथ में भद्दी फब्तियां भी कसते जा रहे थे। पलभर में सारा माहौल बदल गया।लोग डर के मारे अपने में सिमट कर रह गए। सनी कभी इस तरह के हादसे से दो-चार नहीं हुआ था, ना उससे वो गंदी बातें बर्दाश्त हो रही थीं।

गुस्से में आकर उसने उन गुंडों को ललकार दिया। आखिर अच्छी-खासी बॉडी थी और गलत को चुपचाप सहना सीखा  था नहीं! वो गुंडे किसी के कानों की बालियां खींच रहे थे तो किसी के चेन। ऐसे ही जब उन्होंने अपने गंदे हाथ एक लड़की की तरफ भद्दे कमेंट करते बढ़ाए तो,सनी ने जोर का धक्का दिया, जिससे वो दूर जाकर गिरा। एकबारगी तो गुंडे अचकचा गए, पर फिर सबने सनी पर एकसाथ धावा बोल दिया।

सनी ने भी जमकर प्रतिरोध किया, लेकिन जिनकी सुरक्षा के लिए उसने ये कदम उठाया, वो सब मारे डर के दुबक गए। कोई भी हाथ सनी की मदद को न आया। काफी देर तक लड़ाई के बाद हथियारों से लैस गुंडों ने उस पर काबू पा ही लिया आखिर! बेचारे बेदम बच्चे को मार-पीट कर भी उनका दिल ना भरा तो उसे चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया।

ना जाने रात के कितने बजे थे, जब ट्रेन की तेज सीटी से उसकी आंख खुली। ज्यों  ही उठने की कोशिश की, दर्द की तेज लहर पूरे शरीर को अधमरा कर गई।उसने खुद को दो पटरियों के बीच पाया। कुछ देर तो उसे समझ ही नहीं आया फिर जब उसे पिछली घटना का स्मरण हुआ तो धीरे-धीरे उसे याद आई सारी बातें। उसने अपने पैरों को समेटना चाहा पर जांघों के नीचे कुछ पता ही ना चला, दर्द की एक तेज लहर उसके शरीर को ज्यों चीरती हुई निकल गई। दर्द हर वक्त बढ़ता ही जा रहा था। जब जब कोई ट्रेन गुजरती तो रोशनी में उसने देखा कि पैरों से निरंतर खून बह रहा था और पटरियों पर बिलों में रहने वाले चूहे उसके पैरों को कुतर रहे थे।

वह तो वेदना के अथाह समंदर में डूबता चला जा रहा था। इस नीरव रात्रि में उसका रुदन सुननेवाला कोई नहीं! कभी चिल्लाता, तो कभी रोने लगता! पर ट्रेनों की आवाज में सब बेकार!

जिन लोगों के लिए उसने ये मुसीबत मोल ली थी ; वे ना तो तब उसकी मदद को आए और ना ही किसी ने भी किसी स्टेशन पर कोई रिपोर्टिंग ही की! सनी तो कब तलक उसी अवस्था में पड़ा रहा, उसे कुछ याद नहीं। उसने तो बचने की आशा ही छोड़ दी थी। उसकी पलकें मुंदने लगीं और वह बेहोशी के आलम में यूं कब हो, क्या हो- से बेखबर हो चला। जब आँख खुली तो उसने देखा कि किसी हास्पीटल के बेड पर पड़ा था। उसे होश में आया जान सभी डाक्टर, कंपाउंडर वगैरह लपक कर उसके पास आए । तब तक घटना की सूचना पुलिस को दे दी गई थी तो इंस्पेक्टर ने वहां से भीड़ को हटाया और उससे पुछताछ करने लगे।

उसे जानकर बड़ा आघात लगा, कि जिन लोगों के लिए उसने इतना सब झेला, उनमें से किसी ने भी न उसकी मदद की, ना ही कहीं घटना की रिपोर्ट की! वो तो गांव वाले थे जो पटरी पर से उसके क्षत-विक्षत शरीर को लेकर आए थे। वह फिर से बेहोश हो गया। डाक्टर पुनः उसके उपचार में जुट गए। तीन चार दिनों के अथक प्रयासों के बाद उसे फिर होश आया,तो उसने मम्मी पापा से मिलने की इच्छा व्यक्त की। पता चला वह भी टीवी पर इस घटना को देखकर पहुंचे हुए हैं। ज्यों ही उसने उठने की कोशिश की,तो एक भयानक सच उसके सामने था। इस दुर्घटना में उसके दोनों पैर चले गए!

 हां! हतभाग! जिन पैरों से उसने इतना नाम कमाया, जिनसे ओलंपिक में गोल्ड मेडल लाना उसका ख्वाब था, अब वो पैर ही ना रहे। दौड़ना तो दूर अब तो खड़े होने के लिए भी सहारा चाहिए। उसके सारे सपने; मम्मी- पापा की सारी आशाएं चकनाचूर हो गई थीं। उसे बार बार बेहोशी के दौरे पड़ रहे थे। जीने की ना तो कोई वजह थी. ना, कोई ख्वाहिश बची थी। मां-बाप भी बेचारे बेटे की ये हालत देखकर अधमरे से हो गए थे।

 रीमा ने जब यह सुना तो झट हाॅस्टल से घर आ गई थी। उससे सबकी ये हालत देखी नहीं जा रही थी। इलाज तन का तो हो रहा था। पर मन साथ ना हो तो वह काफी नहीं था। यहां तो जैसे सब मस्तिष्क से सुन्न हो गए थे; कौन किसको देखे और किसको समझाए! पर जी कड़ा करके उसने स्थिति को संभालने का बीड़ा उठाया। छोटी थी तो क्या; सबसे पहले मम्मी पापा को समझाया कि भैया के संग बुरा हुआ, लेकिन यह तो सोचो कि वो हमारे साथ तो है, नहीं तो क्या करते हम सब! 

 रोज थोड़े -थोड़े बदलाव करती, कभी खाने में नये व्यंजन बनाती, कभी रुम अरेंजमेंट में बदलाव तो कभी दोस्तों को घर पर बुला लेती। पर कुछ भी करके सनी का डिप्रेशन दूर न होता! यूं लगता जैसे कि वो वहां है नहीं; किसी और ही दुनिया में गुम रहता!

सभी सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं के दरवाजे खटखटाये लेकिन सभी ने इस दुर्घटना से उबरने का खर्च उठाने से इनकार कर दिया! रीमा को परिवार को वापस खड़ा करने के लिए दिन-रात मेहनत करनी पड़ रही थी; कई मोर्चों पर एक साथ! मां-बाप तो अब लगभग सामान्य हो चुके थे,पर अपने प्यारे दुलारे भाई की हालत उससे देखी नहीं जा रही थी। पूरा एक साल गुजर गया ;उसने न दिन को दिन समझा ,न रात को रात!अपनी पढ़ाई,अपना कैरियर सब भूल-बिसरा कर केवल और केवल सनी की चिंता में लगी रहती ।

 एक दिन उसने "दीपा कामटकर" का साक्षात्कार देखा तो भाई को लेकर टीवी के आगे बिठा दिया और कहा कि "आप भी अपने आप को साबित कर सकते हो भैया, हम है आपके साथ! अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, आप कोशिश तो करो!"उस दिन सनी फफककर रो दिया और खूब रोया! साल भर का गुबार; दिल के छाले फूट-फूटकर आंखों से बह निकले।उसने अपनी हामी भरी और पक्के मन से इस स्थिति से बाहर आने का निर्णय लिया।

 फिर तो शुरू हुआ विभिन्न इलाकों के डाक्टरों से मिलना, उनकी राय लेना और सुझावों पर अमल करना। रीमा ने जयपुर फुट के बारे में जानकारी प्राप्त की। फिर भाई को कैसे, उसकी आवश्यकता के लिए उसमें किस प्रकार के बदलाव चाहिए, पहनने के बाद उसे क्या कठिनाई हुई और बेहतर कैसे बनाया जाए; सारा समय यही सब सोचते करते बीतता! अपने-आप को तो भुला ही दिया उसने!

 वो चार  सदियों से लंबे साल कैसे गुजरे; भाग दौड़ करते हुए, न तन की सुध ना मन की फ़िक्र; हमेशा भागम-भाग! पर अब अनिश्चितता की एक लंबी काली रात, सुहानी सुबह में तब्दील हो गई थी; जब सनी पैरालंपिक में नेशनल्स के लिए गोल्ड अपनी प्यारी छोटी बहना को समर्पित कर रहा था; सनी "द ब्लेड रनर" जिसका पूरा नाम था संजय दीक्षित!
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लेखिका - कंचन कंठ
लेखिका का ईमेल आईडी - kanchank1092@gmail.com
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Tuesday 15 September 2020

हिंदी कैसी हो ? / विजय बाबू

कविता 

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विविधता से पूर्ण हिंदी हो,

विशालकाय देश की समृद्धि हो।

विरोधाभास से परे हिंदी हो,

विषमताओं के समंजन में वृद्धि हो॥

भाषा-विवाद का समाधान हिंदी हो,

भाषाओं का अभिमान क्षेत्रीय हो।

प्रभावों में बुनियाद हिंदी हो,

अभावों में फ़रियाद क्षेत्रीय हो

विनम्रता की मानक हिंदी हो,

विशिष्टतापूर्ण हो भावपूर्ण हो।

विरोधाभास से परे भाषा हिंदी हो,

विलुप्तता से दूर सामंजस्यपूर्ण हो

पूरे हिंद की भाषा हिंदी हो,

मानक रूप में बूँद बूँद सर्व भाषा हो।

भाषाएँ सर्वत्र सर्वजन की हो,

परिधि में छोटी-बड़ी चाहे क्यों न हो

विनम्रता की भाषा हिंदी हो,

विशुद्ध रूप में भाषायें मन की हो।

विघटनकारी से कोसों दूर हो,

विभिन्नता में एक अभिन्न हिंदी हो॥

क्षेत्रीय के बाद हिंदी हो,

राष्ट्र की बात में भाषा तो हिंदी हो॥

विवशता से आगे हिंदी हो,

विफलताओं की भाषा हिंदी न हो।

विकटता से मीलों वह ओर हो,

विशुद्धरूप में उत्कट तो हिंदी न हो॥

हिंदी हैं हम वतन के वीर हैं,

भाषाएँ भरसक भरपूर हो सर्वत्र हो।

प्रयोग में सम्पूर्ण विश्व की हो,

हिंदी एक भाषा हिन्दोस्ताँ जहाँ की हो॥

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कवि -  विजय बाबू
कवि का ईमेल आईडी - vijaykumar.scorpio@gmail.com
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Friday 4 September 2020

अंधेरा मिट जाएगा और अन्य कविताएँ / कवि - लाला आशुतोष शरण

अंधेरा मिट जाएगा

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भागमभाग की दुनिया में

ज़िन्दगी ठहरी हुई सी है

दिन को रात मान सोयी हुई सी है।


दिन का सूरज वैसा ही प्रखर है लेकिन

अजीब सा अंधेरे का पसरा है सन्नाटा

जैसे जिंदों की नहीं मुर्दों की बस्ती हो।


डर हावी है इस क़दर, निर्जीव कोविड का

जिंदों ने तब्दील कर ली है ख़ुद को मुर्दों में।


झेली हैं अनेकों महामारियां, अतीत साक्षी है

डर से निकल किया था डटकर मुकाबला

जीवित बचे रह गए थे, जनसंख्या गवाह है।

तब चिकित्सा विज्ञान शैशव में था आज प्रौढ़ है

तब उपचार-ज्ञान अभाव में था आज परिपूर्ण है।


वो सब कुछ है, जो चाहिए हथियार जूझने को

गिरते हैं साहसी ही मैदान-ए-जंग में

बरत हर सावधानी, निकल स्व-कैद से

जगाओ कर्मवीरों सुसुप्त अर्थ-व्यवस्था को।

पटरी पर लाओ दम तोड़ती शिक्षा-व्यवस्था को,

सम्भालो कराहती लघु बाजार की अवस्था को

सहारा दो उन्हें जो रोज़ कुआं खोद पानी पीते हैं।

धीरे-धीरे जिंदगी आएगी पटरी पर

शैनै-शैने अंधेरा सिमट जाएगा

शैने-शैने सवेरा उजाला फैलाएगा।
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                              कहां है

ख़ुदा तूने दुनिया अजीब गढ़ी है

जूही है गुलाब है ख़ुशबू कहां है

वेद है क़ुरान है इबादत कहां है

पंडित हैं मुल्ला हैं ईमान कहां है

शैतान है हैवान है इंसान कहां है

मीर हैं पीर हैं अमन कहां है

शान है इमरान है आन नहीं है।

( मीर=नेता, धार्मिक आचार्य : पीर=सिद्ध पुरुष,मार्गदर्इमरान=मजबूत आबादी, समृद्धि जनसंख्या )
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                          अंतिम कहानी
                            
जीवन भर की मशक़्क़त की अंतिम कहानी

चेहरे पे बिखरी सिलवटें, यादों की दिवानगी

ज़िन्दगी से बढ़ती बेरुखी, नज़रों में बेनूरी

अंजामे मुस्तकबिल का ख़ौफ़, मन की बेचारगी

दोस्तों को ढ़ूढ़ती उदास आंखों में वीरानी

एकाकीपन की इंतहा सपनों से भी दुश्मनी।

(मशक़्क़त=मेहनत   : मुस्तकबिल=भविष्य : इंतहा=चरम सीमा)
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कवि -  डाॅ.‌‌लाला‌‌ आशुतोष कुमार शरण
कवि का ईमेल आईडी -lalaashutoshkumar@gmail.com
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मायने / मनीश वर्मा

विचार

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एक वक्त था, जब प्यार मे लोग जीने मरने की कसमें खाते थे! और एक वक्त ऐसा आया, अब प्यार मे लोग मरने - मारने पर उतारू हैं. 

प्यार के मायने बदल गए हैं. वो एक प्यार था, जब लोग यादों के सहारे पूरी जिंदगी काट दिया करते थे और आज!  थोड़ी यादों मे कमी आई तो जिंदगी ले लेते हैं. मानो प्यार, प्यार न होकर कोई वस्तु हो! शायद, युग परिवर्तन का असर इसपर कुछ ज्यादा ही पड़ा है. प्यार में त्याग और समर्पण की जो भावना हुआ करती थी उसका स्थान 'ओबसेशन'(सनक) ने ले लिया है.क्या कहेंगे इसे आप? कहीं न कहीं सामाजिक स्तर पर बड़े बदलाव का द्योतक है यह. हम समझ नही पा रहे हैं. आज कहने को सोशल मीडिया की वजह से हम सभी का सामाजिक दायरा काफी बढ़ गया है पर, वास्तविकता है कि हम अपनों से, अपने समाज से कटते जा रहे हैं. हमारा आभासी  (Virtual) दायरा बढ़ता जा रहा है और वास्तविक दायरा सिकुड़ता जा रहा है. 

भावनात्मक क्षणों को हमलोगों ने गिनती के कुछ शब्दों मे समेट कर रख दिया है. कोई भी मौका हो, हम दो या तीन शब्दों या फिर सामने वाला अगर बहुत करीब का हुआ तो कुछ वाक्यों मे कुछ रटे रटाए, काॅपी पेस्ट शब्दों के सहारे अपनी भावनाओं को व्यक्त कर हम अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं.

वाकई, समय की कमी हो गई है. शायद, कुछ अप्रत्याशित खगोलीय घटनाओं की वजह से दिन के 24 घंटे में कुछ कमी आ गई है !

भाई, अगर ऐसा कुछ नही हुआ है तो आखिर समय कहां चला गया ? थोड़ा आत्ममंथन करें ! अपने आप को जगह दें. अपने आप को, अपने परिवार को, समाज को जानने की कोशिश करें. अब भी वक्त है संभल जाएं. गुलामों की जिंदगी से बाहर निकलें. गुलामी न कल अच्छी थी न आज अच्छी है. फिर क्यों गुलामों की जिंदगी जी रहे हैं? क्यों अपने आप को दायरे मे बांध कर अपनी दृष्टि, अपने विज़न का दायरा सीमित कर रहे हैं?
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लेखक - मनीश वर्मा 
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Thursday 3 September 2020

चेष्टा बस ज्ञान-संवर्धन (शिक्षक दिवस - 5 सितम्बर पर विशेष) / कवयित्री - दीपा आलोक

कविता 

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                     करूँ संचरण 
                    चेष्टा है ज्ञान-अर्जन,
                    करूँ जिसके लिए  मैं संचरण। 
                    ज्ञान की पूजा करूँ 
                    बन ज्ञान का मैं संचारी। 
                    सीखने की चाह जिसमें 
                    बनूँ मैं उसका उद्धारी। 

                                      चेष्टा है ज्ञान-संपोषण,
                                      करूँ जिसके लिए मैं संचरण। 
                                      सर्वांगीण विकास घ्येय हो मेरा,
                                      हर बालक बने सुजान। 
                                      ख्याति उसकी हो चहुँ दिश ,
                                      कीर्ति का भी हो बखान। 

                     चेष्टा है ज्ञान-समर्पण,
                     करूँ जिसके लिए मैं संचरण। 
                     सम्पूर्ण जीवन दूँ मैं इसको,
                     करूँ मैं जग को यह अर्पण। 
                     संजीवनी यह जिसे पीकर,
                     हो प्राप्त सबको संतुलन। 

                                        चेष्टा है ज्ञान-संरक्षण,
                                        करूँ जिसके लिए मैं संचरण। 
                                        स्वयं से इतना कहूँ  - 
                                        कर न तू बस ज्ञान-अर्जन,
                                       कर तू इसका संस्करण। 
                                       ज्ञान की आभा मिले तो,
                                       हो समुज्ज्वल यह धरा। 

                     न कोई संत्रस्त हो फिर ,
                     हो जाए  सस्मित वसुंधरा। 
                     चेष्टा बस ज्ञान संवर्धन,
                     करूँ जिसके लिए मैं संचरण। 
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कवयित्री - दीपा आलोक
कवयित्री का ईमेल आईडी- deepaalok2@gmail.com
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