कविता
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मन में धुन है कि
कुछ रचूँ नवल
कुछ भाव धवल
आंखों में छाये
मधुर सपनों के बादल
पर आह ये हो कैसे
हो क्यों कर
आती हैं हर दिशा
से मायूसियों की ख़बर
दिल में उठते हैं भंवर
ये हाल, परेशान लोग
जान- बेजान लोग
कहां से चले, कहां तक चलें
लेकर फफोले दिलों में
पावों में छाले घने
क्यूं होती न इनकी भोर
क्यूं सुनता न कोई शोर
कब तक आखिर कब तक
छले जाएंगे ये
कौड़ियों के मोल लुटाने को
अपने श्रम को
आ जाते गांवों से शहर बसाने को
बसते ही शहर धकेल दिए जाते
गंदगी कहकर ठेल दिए जाते
अब तो कुछ हो राह आसान
हैं बुत नहीं, जिंदा इन्सान.
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कवयित्री - कंचन कंठ
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