Monday 25 May 2020

पापी पेट के लिए जागता दौड़ता शहर / कवि - विजय बाबु

कविता

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वर्तमान के गर्त से निकली ये चिंगारी
क्या पता अब कब, कौन
शहर खुद चले गाँव की ओर
या गाँव ही शहर को दे जनम
पर जालिम पापी पेट है
कि यह भूख ही शहर तक ले गया
पेट भरा तो शहर के साथ दौड़ा
बदले में शहर ने ही शरण दिया,
पर अब फिर वही पापी पेट
और उसी भूख ने ही किया वापस
जीते रहने की ख़्वाहिशों के बदले हज़ारों मील
तय करने को विवश किया ।

न जाने क्यों एतवार हो गया
शहर को सिर्फ शहर पर 
और जागा प्यार गाँवों का फिर गाँव से
न जाने कब कौन, कहाँ अब
फिर से इक नये जन्मे शहर को जीवित कर
 बसे बसाये शहर को ही वीरान कर दे 
और कहे कि
पापी पेट ही है सबका मालिक,
जागता शहर तो बस बानगी भर है
तो ऐ शहर बंद कर इठलाना अभी
देख पापी पेट स्वयं तुझे मौका देगा 
इठलाने का फिर इक बार 

देगा, क्योंकि तुझे जागते हुए ही
दौड़ते हुए ही 
और सजते-सँवरते हुए ही  देखा
 तो आज सोते, रोते
हुए देखा तो जी घबराने लगा,
लगा कि गाँव तो अपना था मगर
तू भी तो सपना था 
जिसे साकार करने हम पापी पेट लेकर जो निकले थे
आये थे निकल कर दूर कूच करने को,
और शहर दर शहर संवारने क्योंकि
पापी पेट ही है सबका मालिक
तू तो महज़ निमित्त मात्र है शहर
और हमारा-तुम्हारा मिलन ही सत्य है ।

तो सोच जरा एक पुल को बनाने की
ताकि पापी पेट भी भरे 
और तेरे
जैसे सब शहर भी सजे
 इस कोने से उस कोने तक सजता रहे 
क्योंकि,
अपना तो ढर्रा रहा है इस धरा पर
शहर भूखा तो पेट भी भूखा रहे
पेट भूखा तो शहर भी रोता रहे
तो गाँव ही शहर बन 
तो आ सकूँ पास पुल के
और तू भी चल ऐ शहर मेरी ओर
कि दोनो ही बढ़ा सके अपने कदम
और चरण-थाप की चिंगारी में 
हँसे तुम और हम।
....
कवि -  विजय बाबु
कवि का ईमेल आईडी - vijaykumar.scorpio@gmail.com
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