Monday 30 March 2020

मनु कहिन (22) - वैश्विक तकनीकी प्रगति और हम

चिंतन

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आप इसे संयोग कह सकते हैं। पर, एक सच्चाई तो है। हम और हमारी उम्र या उसके आसपास के हम सभी लोग विश्व परिदृश्य मे हो रहे या हो चुके एक अहम बदलाव के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं और वर्तमान मे भी अनुभव कर रहे हैं। बदलाव से हम वाकिफ हैं। इसकी अच्छाइयों  के साथ-साथ इसकी नकारात्मक बारीकियों को भी हम अनुभव कर रहे हैं। 

कल वो एक दौर था जब हम महज़ एक टेलीफोन काॅल करने के लिए पीसीओ पर अपनी बारी का इंतजार करते थे। एक नज़र मीटर पर टिकी रहती थी ताकि मीटर की रीडिंग जेब मे रखे पैसे पर भारी न पड़ जाए। दूरस्थ किसी अपनों से बातचीत करना और उसका हालचाल जानना एक task हुआ करता था। पर, आज की स्थिति क्या है ? शायद, बताने की जरूरत नही है !  

हां, एक बात का मै यहां जिक्र करना चाहूंगा! मेरी नौकरी तब तक लग चुकी थी। कार्यालय मे,  आपरेटर के माध्यम से फोन करने की सुविधा उपलब्ध थी।पर, मन एक "टेलीफोन फोबिया" से ग्रस्त था। इस्तेमाल मे डर लगता था। कहीं कोई गलती न हो जाए। जैसे फोन न होकर कोई अलहदा वस्तु हो। 

हां, तब के और अब की स्थिति मे मेरे विचार से जो बुनियादी फर्क है वो यह कि आज जब हम एक दूसरे की पल पल की खबर रख रहे हैं तो हम ज्यादा अधीर नज़र आने लगे हैं। धैर्य कुछ कम सा हो गया है। 

जरा उस वक्त के बारे मे सोचिए जब हम अपनी महत्वपूर्ण बातों को रखने के लिए अक्षरों एवं शब्दों मे अपने संदेश एक तय शुल्क अदा कर भेजा करते थे। यहां हम बातें कर रहे हैं टेलीग्राफ मेसेज की। भावनाओं काइजहार और संप्रेषण ! क्या दिन थे वो! आज देखिए, हमने यहां लिखा और ये लिजिए आप तक पहुंच भी गया। कितना आसान हो गया है भावनाओं का इजहार और संप्रेषण! 

पर, क्या इतने त्वरित गति से अपनी भावनाओं का इजहार और संप्रेषण करने के बाद भी हमारे संबंधों मे जो प्रगाढ़ता आनी चाहिए थी ! क्या वो आई? शायद, नही ! कहां से आएगी हमने तो धैर्य ही खो दिया है। अधीर हो चुके हैं हम सब।
फिर, समय आया कम्पूटर का। लोग बाग अजीब अजीब आशंकाओं से ग्रस्त थे। हर एक व्यक्ति की अपनी धारणा थी। अपनी एक कहानी थी। कहीं मैंने पढ़ा था , जब रेल इंजन का अविष्कार हुआ था तब लोगों ने उसे देखकर कहना शुरू किया था "एक काला राक्षस दौड़ता हुआ आता दिखाई देता है" ।  अजीब अजीब धारणाओं और आशंकाओं से लोग बाग ग्रस्त थे। खैर, वो तो लगभग २०० वर्ष पुरानी बात थी।  हां, कंप्यूटर के संदर्भ मे खैर वैसी बात तो नही थी ! पर, एक अजूबा तो था। पर, आज क्या स्थिति है ? क्या, कंप्यूटर के बिना हम एक कदम भी आगे बढ़ा सकते हैं। शायद नही! ऐसा कोई क्षेत्र नही है जहां कंप्यूटर ने अपनी पैठ न बनाई हो या फिर अपनी उपयोगिता न सिद्ध की हो।

फिर ,जनाब एक दौर आया मोबाइल फोन का। क्रांति आ गई। हां, पर आप इसे कंप्यूटर का छोटा वर्ज़न कह सकते हैं। ये वो दौर था जहां एक ओर लोग बाग टेलीफोन बूथ पर जाकर पंक्तिबद्ध होकर अपनी बारी का इंतजार करते थे। मैं पुनः दुहरा रहा हूं। दूरस्थ अपनों से बात करना एक टास्क हुआ करता था। मोबाइल फोन ने दूरियां सिमटा दी। एक फिल्म आई थी - दुनिया मेरी जेब मे । हालांकि ये फिल्म मैंने देखी नही है! पर, भाई साहब मोबाइल फोन ने तो वाकई मे आपकी दुनिया आपके जेब मे ही डाल दी। सीमाएं खत्म हो गई। दूरियां मिट गईं। याद कीजिए वो दौर जब मोबाइल पर इनकमिंग कॉल पर भी पैसे लगते थे। मोबाइल पर फोन आना एक कौतूहल पैदा करता था । क्या लोगों ने उस वक्त कभी सोचा होगा कि मोबाइल उनके जीवन पर इस तरह से हावी हो जाएगा कि उससे पीछा छुड़ाने के लिए यत्न करना पड़ेगा। आज वही वक्त आ गया है। मोबाइल , कंप्यूटर आदि की वजह से दुनिया वाकई बहुत छोटी हो गई है पर, इसकी एक कीमत चुकानी पड़ रही है। हम वास्तविक जीवन को न जीकर आभासी जीवन को जीने लग गए हैं। 

इस दौरान वैश्विक स्तर पर बहुत सारे बदलाव आए। इन बदलावों की वजह से हमारे रहन सहन मे भी बदलाव देखने को मिला। ओटो मोबाइल सेक्टर मे क्रांति देखने को मिला। हवाई परिवहन के क्षेत्र मे व्यापक बदलाव देखने को मिला। एक आम आदमी भी आगे बढ कर सोचने लगा था। उसके सोचने के आयाम मे परिवर्तन देखने को मिल रहा था। दुनिया बदल सी गई थी।

अब जब हम बदलाव और उससे हम सभी कैसे जुड़ गए हैं ! किस तरह से हम सभी साक्षी हैं इन चीजों के! जब उसकी बातें कर रहे हैं तो हमें कोरोना की बात भी करनी चाहिए। एक अभूतपूर्व दौर से गुजर रहे हैं हम सभी। पूरा विश्व हलकान है कोरोना के प्रकोप से। हम लोगों ने इतिहास मे पढा था, समाचार पत्रों मे छपे खबरों के माध्यम से जाना था किसी काल मे विश्व के भिन्न-भिन्न भागों मे फैले महामारी के बारे मे। आज हम सभी साक्षी हैं। आज हमारे पास एक उन्नत स्वास्थ्य व्यवस्था है फिर भी समस्त विश्व एक साथ मिलकर भी कोरोना पर अब तक विजय प्राप्त नही कर पाए हैं। कभी किसी ने सोचा था कि मनुष्य जो खुद को सर्वशक्तिमान समझने का मुगालता पाले बैठा उसे यूं घूटने टेकने पर मजबूर होना पड़ेगा। 
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लेखक - मनीश वर्मा 
लेखक का ईमेल - itomanish@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ब्लॉग का ईमेल - editorbejodindia@gmail.com

Sunday 15 March 2020

'हंस' पत्रिका में रूपा सिंह की एक कहानी 'दुखां दी कटोरी : सूखां दा छल्ला' पर कुमार सुशान्त की प्रतिक्रिया

रूपा सिंह की कहानी अच्छी किंतु इसकी तुलना अन्य कहानीकारों से करना अनुचित

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हंस' पत्रिका में रूपा सिंह की एक कहानी छपी है। शीर्षक है, 'दुखां दी कटोरी : सूखां दा छल्ला'। जिस व्यक्ति ने इस कहानी को 'उसने कहा था' से बेहतर बताया उससे पूर्णतः असहमत हूँ। उस व्यक्ति के कहानी की समझ का पता भी इसी बात से चल जाता है कि उसने कहानी की तुलना किस कहानी से की है। पहले उन्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि अमृतसर शहर को आधार बनाकर कहानी लिख देने से  'दुखां दी कटोरी : सूखां दा छल्ला', 'उसने कहा था' से बेहतर कहानी नहीं हो जायेगी। 

अमृतसर शहर को आधार बनाकर मोहन राकेश ने एक कहानी लिखी थी, 'मलबे का मालिक' । यह कहानी विभाजन और अमृतसर दोनों को केंद्र में रखकर लिखी गयी है ठीक रूपा सिंह की कहानी की तरह। 'दुखां दी कटोरी : सूखां दा छल्ला' कहानी मोहन राकेश की कहानी,'मलबे के मालिक' से भी बेहतर नहीं है। 'उसने कहा था'  की बात तो छोड़ ही दीजिये। खैर जिस महाशय ने इसे 'कफ़न'  से बेहतर बताया है और जिन्होंने इसे कृष्णा सोबती से आगे की कहानी कहा है एवं जिन लोगों ने कहा कि संजय और उदय प्रकाश की कहानियाँ इसके आगे कुछ भी नहीं तथा जिसने यह कहा कि ऐसी कहानी हिन्दी मे लिखी नहीं गयी - ऐसे लोगों के कहानी की समझ पर तरस आता है। शायद उन्हें कहानी की कोई समझ ही नहीं है।

यहाँ एक बात स्पष्ट कर देता हूँ कि मेरी नज़र में यह कहानी एक अच्छी कहानी है। लेकिन किसी और लेखक या लेखिका की कहानी से इस कहानी की तुलना करना ठीक नहीं है। हर कहानी का अपना वातावरण और परिवेश होता है जिसमें वह कहानी फलती-फूलती है।

अब आप लोग प्रश्न कर सकते हैं कि मैंने भी तो मोहन राकेश की कहानी से इस कहानी की तुलना कर दी है। इस पर मेरा उत्तर यह है कि ऐसा मैंने अन्य लोगों को कहानी की समझ पर प्रश्न उठाने के क्रम में किया है। जिससे वे मोहन राकेश की कहानी को पढ़कर अपनी दृष्टि साफ कर सकें।

शिवकिशोर तिवारी और अजय नेवारिया को कहानी के विरूद्ध लिखने पर ट्रोल नहीं करना चाहिये था क्योंकि साहित्य के लिए ट्रोल संस्कृति ठीक नहीं है। उनका जो भी मत है अगर आप उससे असहमत है तो फेसबुक पर उन्हें ट्रोल न करके उनके खिलाफ पत्रिकाओं में लिखिये।

कृष्ण कल्पित ने इस कहानी के सम्बंध में लिखा कि,
"मुझे ख़ुशी है कि रूपा सिंह ने अपनी एक ही कहानी से गीताश्री जैसी अनेक और अत्यंत महत्वाकांक्षी महिला कथाकारों को पीछे छोड़ दिया है । रूपा सिंह पंजाबी और बिहारी दोनों हैं और उनमें बहुत कथानक छिपे हुए हैं ।

कहानी अच्छी ही होगी । कहानी बुरी होती ही नहीं लेकिन इस कहानी की अतिप्रशंसा करने वाले रूपा सिंह के शुभचिंतक नहीं हैं ।

और तुम तो जानती हो कि मैं कहानी-उपन्यास बिना किसी पुख़्ता सिफ़ारिश के पढ़ता नहीं, बेबे !"

कृष्ण कल्पित की उपर्युक्त टिप्पणी की दो बातों से एक तरफ असहमत हूँ तो दूसरी तरफ एक बात से सहमत भी हूँ । असहमत इस बात से हूँ कि उपर्युक्त टिप्पणी में कृष्ण कल्पित का यह गुरूर ठीक नहीं है कि  वे कहानी-उपन्यास बिना किसी पुख्ता  सिफ़ारिश के नहीं पढ़ते ।

इतनी नामचीन लेखिकाओं और लेखकों ने  बिना किसी की सिफ़ारिश के यह कहानी पढ़ी और अपनी प्रतिक्रिया दी, उच्चता इसे कहते हैं । महिलाओं के लिए उन्हें ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए जैसा उन्होंने उपर्युक्त टिप्पणी में किया है।  सहमत इस बात से हूँ कि इस कहानी की अतिप्रशंसा करने वाले रूपा सिंह के शुभचिंतक नहीं हैं।

साहित्य जगत की वरिष्ठ और स्थापित लेखिका ‘मृदुला गर्ग’ जी द्वारा  रूपासिंह  की कहानी  पर जो विचार रखे गए हैं, उनसे मैं असहमत नहीं बल्कि आक्रोश से भी भरा हूँ ! उनकी कहानी की  समझ पर मुझे हैरानी है !  मेरी आपत्तियाँ  बिन्दुवार इस प्रकार हैं -

1) इस कहानी  को ‘आला जासूसी’ कहानी बताना मुझे सरासर  आपत्तिजनक  और अपमानजनक लगा ! बेबे की पीड़ा पर उन्होंने कही भी कुछ नहीं कहा और  न ही इसे ‘बेबे की पीड़ा की कहानी’ बताया, जो असल में यह हैं!

2) इतना ही नहीं वे नाना को ‘कसाई’ घोषित करती हैं ! नाना अपनी सुग्गी को यदि कारणवश देहरी के भीतर बन्द रखते थे या अकेले देहरी पार नहीं करने देते थे  या मायके तक में भी उनके साथ जाते और रहते थे, तो इसके पीछे नाना की जो असुरक्षा की और  प्यार-ख्याल की भावना है, उस संवेदना को सिद्धहस्त लेखिका कही जाने वाली आदरणीया मृदुला जी देखने में क्यों असमर्थ रही ! उनकी सोच व समझ का दायरा इतना तंग, इतना सीमित है कि वे उस पुरुष को एक मात्र कसाई के रूप में देखती हैं ? इसके आगे उनकी  सोच जाती ही नहीं ? बेहद अफ़सोसनाक !

3) तीसरी बात कि  मृदुला जी, नाना को अपनी सुग्गी को भाई की बीमारी के बहाने से अपने देश, अपने परिवार, अपने जीवन में वापिस लेने को ‘अगुवा’  करना कहती है, यह भी उनकी नकारात्मक  सोच का परिचायक है ! जबकि मेरे अनुसार  नाना द्वारा अपनी  खोई हुई मंगेतर को वापिस लेने की जुगत करना ‘अगुवा’  करना कतई नहीं ! सुग्गी हालात की दास थी, मजबूरी में अपने शरणदाता को अपना सर्वस्व मानती है और वो अंजान शमशेर भी उसे बाइज्ज़त पत्नी बना कर अपनाता है ! यह सब बंटवारे से उपजे हालात के कारण घटता  है ! इसलिए उन हालात के मद्देनज़र,  नाना का अपनी मंगेतर को  किसी भी बहाने से वापिस लेना, अपनी मंगेतर को हासिल  करना हुआ, न कि अगुवा करना  !

अगली बात, नाना की उदारता ने मृदुला जी के दिल को एक बार भी नहीं छुआ कि गोद में  बच्चा देख कर भी उसने अपनी मंगेतर को  हिकारत से नहीं  देखा और सम्मान से स्वीकार किया ! यह कड़क दिखने वाले  नाना की उदारता की इंतहा थी ! जिसके  पीछे नाना का प्यार ही हिलोरे मार रहा था !  वरना  उस ज़माने  के मर्द इतने  कड़क और  पुरुष वर्चस्ववादी होते थे कि पता चला नहीं कि उनकी बीवी या मंगेतर किसी पराये मर्द द्वारा अगर  छू ली गई, तो उसे त्यागते  वे देर नहीं करते थे ! सुग्गी तो नाना की मंगेतर थी, वे उसकी गोद में बच्चा देख कर उसे जस का तस त्याग भी सकते थे, किन्तु नहीं ! उनका सुग्गी के लिए प्रेम अधिक प्रबल निकला और उन्होंने उसे शमशेर की बेटी सहित सुग्गी  को अपना  लिया !  यह एक उदात्त मानवीय कदम था !

मृदुला जी ने कहानी की मूल संवेदना बेबे की पीड़ा पर एक बार भी ठीक से कुछ न कह कर, उस पर  बस एक वाक्य से बात खत्म कर दी कि इतनी पीड़ा के बीच खुशी का अहसास था। मुहब्बत की तरावट चित्त को भिगो रही थी। उनसे यह उम्मीद न थी !

जैसा की  आदरणीया मृदुला जी ने इस कहानी को ‘जासूसी’ कहानी का ख़िताब दिया और अंत में रूपा जी को अपनी असल वारिस का आशीष दिया तो क्या वे इस बात को स्वीकारेगीं कि आने वाले समय में ‘आला दर्ज़े के  जासूसी कहानीकार’ ही उनके ‘वारिस’ होंगे ? मुझे लगता है मृदुला जी कहना क्या चाहती हैं, शायद उन्हें ही नहीं पता !

अब कुछ अन्य खास  आकलन - 

मैंने शुरू से अंत तक सभी लेखकों की उत्तम अभिव्यक्तियाँ पढ़ी, जिनमें ममता कालिया जी, रोहिणी अग्रवाल जी और अनिल प्रभा कुमार जी ने बहुत अच्छे से अपने विचार रखे !  किन्तु सबसे अधिक  संवेदनशीलता  और बारीकी से इस कहानी के कहे-अनकहे महत्वपूर्ण  कतरों को जिसने  समझा और उनका  कायदे से उल्लेख किया, वे हैं  दीप्ति गुप्ता !

1) एक अकेली  दीप्ति  जी हैं जिन्होंने बहुत संवेदनशील ढंग से  कहानी को पढ़ा, आत्मसात किया और फिर कलम चलाई ! इतने कलमकारों में  सिर्फ़ उन्होंने नाना के कड़क व्यक्तित्व के पीछे छुपे  उस प्रेमी और असुरक्षित पति को देखा, जो सतत असुरक्षा और प्यार से भरा हुआ सुग्गी को अकेला नहीं छोड़ता ! इस बात पर मैंने भी ऊपर विस्तार से लिखा है !

2) दूसरी ज़रूरी बात तोषी और नातिन के निश्छल मासूम प्यार  पर भी  दीप्ति  जी ने  लिखा ! उनके बाद  संजीव चंदन ने भी इस समानांतर कथा की बात कही, पर इनसे पहले दीप्ति जी  इस बात को कह चुकी थी,  किन्तु अन्य किसी ने इसे समझा ही नहीं  और समझा भी तो बस बेबे पर ही अटके रहे ! अन्य सब कहानीकारों को भी इसका उल्लेख करना  था न !

3)  तीसरी बात एक जगह तोषी, नातिन के सिर पर चुनरी डालता है जब वह दर्द भरा लोक गीत गाती बेबे के कमरे के बाहर उदास खडी हुई  थी ! इस बात को भी दीप्ति जी की पारखी समझ ने पकड़ा क्योंकि पंजाब में लड़के द्वारा लड़की पर चुनरी डालना, उसे अपनाने  की लोक रस्म होती है ! रूपा जी ने इन दोनों पात्रों के मासूम लगाव का खास संकेत इस चित्रण के द्वारा दिया, जिसे एक मात्र दीप्ति जी ने  समझा ! उनकी कहानी प्रखर समझ को सलाम ! उनका आकलन इस  कहानी को  समृद्ध करता है !

अंत में यही कहना चाहूँगा कि कहानीकार बन जाना एक अलग बात है और  दूसरे कहानीकार  की कहानी पढ़ कर  उसे सही से आत्मसात करके, उस पर सही-सही कलम चलाना  बड़े-बड़े प्रख्यात कलमकारो और कलमवीरों के भी बस की बात नहीं !
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आलेख - कुमार सुशान्त  
आलेख के लेखक का ईमेल - kumarsushant515@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ब्लॉग का ईमेल - editorbejodindia@gmail.com

Saturday 14 March 2020

मनु कहिन (20) - रिश्ते (कहानी)

रिश्ते
मैंने उसे काफी समझाया। ... पर, मैं अपने आप को कैसे समझाता? 

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आज मेरे सामने बीते हुए मेरे पूरे वर्ष दिखाई दे रहे हैं। बड़ी ही असमंजस की स्थिति है। यह फैसला कर पाना मुश्किल हो रहा है कि शुरुआत कहां से करूं। कुछ समझ नही पा रहा हूं। बीता हुआ हर लम्हा ऐसा लगता है मानो कल की ही तो बात है। नही भूल पा रहा हूं वो पल।आप उन्हें भुला भी कैसे सकते हैं भला। आपकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है वो। सारे दृश्य एक चलचित्र की तरह सामने से होकर गुजरते जा रहे हैं। एक बड़ा ही अजीब अहसास है। जिंदगी मे हर पल की एक कीमत होती है। हर इंसान की जिंदगी मे कुछ पल ऐसे आते हैं जिन्हें वो चाहकर भी भुला नही सकता है। यह अलग बात है उनमें से कुछ पल की यादें खट्टी मीठी होती हैं तो कुछ की ऐसी कड़वी जिनके कल्पना मात्र से ही आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कुछ यादें बड़ी ही हसीन होती हैं - जब आप किशोरावस्था की उम्र पार कर जवानी की दहलीज पर अपने कदम हौले से रख रहे होते हैं। ये ऐसी यादें होती हैं जो बार बार आपके सामने से होकर गुजरती हैं और वस्तुत: आप चाहते हैं कि वो गुजरती रहें, तब तक, जब तक कि उन्हें याद करते हुए आप बेसुध न हो जाएं। आप होश खो बैठे। 

ऐसे ही हसीन यादों मे से एक 'उसका' हमारी जिंदगी मे आना था। 'वो' हमारी जिंदगी मे कब और कैसे आई, इसकी व्याख्या तो काफी मुश्किल होगी पर सच्चाई तो यह है कि   'उसे' मेरी जिंदगी में आना था सो आ गई। खैर! अब जब  'वो' जब आ ही गई तो इस बात से मैं अपने आप को अलग नही कर सकता हूं कि हम दोनों के बीच एक  'रिश्ते' की शुरुआत हुई। 'रिश्ते' की शुरुआत हुई, और हां हुई भी बड़े अचानक तरीके से एवं काफी हद तक भावनात्मक। पर, आज तक वह  'रिश्ता' बिना नाम के ही चलता रहा।

 लाख सोचने के बाद भी हम उस रिश्ते को एक नाम दे पाने मे असमर्थ रहे। आप या हममें से कोई भी व्यक्ति आमतौर पर उस 'रिश्ते' को एक दोस्त अथवा एक प्रेमिका का संबोधन ही दे सकता था। उनलोगों ने दिया भी पर अगर यह मौका मुझे मिला होता तो शायद मैं यही कहूंगा कि इस रिश्ते या संबंध का नाम आप चाहे कुछ भी रख लें, इसे जो भी कह लें  मगर यह उन सभी रिश्तों से अलग एक भिन्न प्रकार का रिश्ता था, एक किस्म का प्यार था। "पलूटोनिक लव" था यह! खैर! फिलहाल अगर इस व्यर्थ के विवाद मे न ही पड़ा जाए तो अच्छा होगा अन्यथा इस विवाद मे पड़कर हम और आप मुख्य कथानक से दूर हट सकते हैं।

इंटर की पढ़ाई पूरी करने के बाद हम शहर आ गए थे अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए। गांव मे पढ़ाई का न बहुत बढ़िया माहौल था और न ही कोई कालेज जहां आगे की पढ़ाई पूरी की जा सकती थी। हमारे साथ कुछ लड़के और भी थे जो गांव से शहर आए थे अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखने की खातिर। 

वह लड़की जिसका जिक्र मैं पहले ही कर चुका हूं, हमारे पड़ोस मे ही रहा करती थी। खूबसूरती की मिसाल थी वो। बस इतना ही कहा जा सकता है। यूं तो खूबसूरती देखने वाले की आंखों मे होती है फिर भी उसकी तारीफ में इतना तो कहा ही जा सकता है कि - माशा अल्लाह ! भगवान ने बड़ी ही खूबसूरती के साथ, फूरसत के क्षणों मे बड़े ही आराम से उसे बनाया होगा। शायद गढ़ा हो। उसकी झील सी गहरी एवं नीली आंखें मानो बेताब थी बाहर निकल कर बातें करने को। सांचे मे ढला हुआ रेशम सा नाजुक बदन। बोलती थी तो मानो ऐसा लगता था - फूल झड़ रहे हों। आप यकीन करें या ना करें, पर यह सच है! आप उसकी तारीफें करते जाएंगे, थक जाएंगे पर, तारीफें खत्म नही होंगी अलबत्ता- शब्द कम पड़ जाएंगे!! कुदरत का नायाब तोहफा, अद्भुत करिश्मा थी वो! बला की खूबसूरत थी वो! हम सभी पागल से हो गए थे, उसके पीछे। उसकी एक झलक पाने को हम सब की निगाहें उसके घर की ओर लगी रहती थीं। बड़े ही अजीब दिन थे वो हम सब के लिए।

इसे आप मात्र संयोग कह लें या कुछ और वो मेरी जिंदगी मे आ गई। संयोगवश उसका दाखिला हमारे ही कॉलेज मे हो गया। अब दिन भर उसके घर की ओर ताक झांक का काम तो खत्म हो चुका था पर, समस्या यह थी कि शुरुआत की भूमिका क्या हो। एनालिसिस करने जब हम सारे मित्र बैठते थे तो यह निष्कर्ष तो अवश्य निकलता था कि दिलों मे हलचल दोनों ही तरफ हो रही है। खैर! होनी को यही मंजूर था। कालेज मे पढ़ाई के दरम्यान कुछ संयोग ऐसे बने कि बातचीत की शुरुआत हो गई। धीरे धीरे बातचीत का एक सिलसिला शुरू हो गया।

मिलने जुलने की भी शुरुआत हो गई। ऐसा लगा मानो कोई बांध अचानक टूट गया हो और उससे निकला पानी बड़े ही वेग से बिना किसी बाधाओं के बढ़ता ही जा रहा हो। हमारे संबंध एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गए जिसका नाम मैंने शुरू मे ही पलूटोनिक लव दे रखा है। एक दूसरे से मिले बिना समय काटना मुश्किल हो गया। जिस दिन हम नही मिलते थे ऐसा लगता था मानो हम कुछ खो रहे हों। एक अलग ही रिश्ता कायम हो गया था हमारे बीच में। यह रिश्ता समाज के बनाए सारे रिश्तों से थोड़ा अलग था। एक सुकून की बात यह थी कि हमारे अभिभावकों को हमारे इस रिश्ते के बारे मे अभी तक कोई जानकारी नही थी। अन्यथा रूढ़ियों से भरे समाज के अपने ही बनाए गए नियमों से इतर इस रिश्ते का हश्र क्या हो सकता था, इस बात का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। 

हां, तो मैं यह कह रहा था कि हम दोनों ने सामाजिक रिश्ते से अलग एक भिन्न रिश्ता कायम कर रखा था, जिसे न तो आप प्यार और न ही दोस्ती की संज्ञा दे सकते थे। यह उससे ऊपर की ही बात थी। समय मानो पंख लगा कर उड़ रहा था।

हमारी परीक्षाएं समाप्त हो गई थी। हम सभी अपने अपने रिजल्ट का इंतजार कर रहे थे। पर, हम दोनों की चिंता तो औरों से भिन्न थी। हम दोनों को अब यह चिंता सता रही थी कि आगे क्या होगा ? अब न चाहते हुए भी हम दोनों को अलग होना ही होगा क्योंकि उच्च शिक्षा के लिए मेरा विदेश जाना तय था। हम दोनों की चिंता स्वाभाविक थी। परिणाम निकला । सभी की आशा के अनुरूप मुझे पूरे कॉलेज मे प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। वह भी अच्छे नंबरों से पास हुई। मैं वापस घर लौटने की तैयारी करने लगा। उसकी स्थिति मुझसे देखी नही जा रही थी। काफी दुखी थी वो। यह उसके चेहरे और हाव भाव से प्रकट हो रहा था। दुखी तो खैर मैं भी था पर अपनी मर्दानगी का ख्याल मुझे कुछ भी अपने चेहरे पर प्रकट नही होने दे रहा था। अलग होने के दिन सुबह से ही वो काफी गुमसुम थी। जाने के वक्त उसका रोना मुझसे देखा नही जा रहा था। पर, क्या किया जा सकता था?  'रिश्ता ' ही कुछ ऐसा था! मैंने उसे काफी समझाया। कहा - मिलना बिछुडना तो प्रकृति का नियम है। हम इसके अपवाद कैसे हो सकते हैं! हमें इन बातों को समझना होगा। परिपक्वता का तकाजा भी यही है। पर, मैं अपने आप को कैसे समझाता? अगले कुछ पलों मे हमारी दुनिया बदलने वाली थी। 

अगले ही महीने मैं अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए अमेरिका चला आया। कुछ दिनों तक तो हम एक दूसरे को खतों के जरिए अपने रिश्ते का अहसास कराते रहे।पर, धीरे धीरे समय के साथ ही साथ कम होता हुआ , बिल्कुल ही खत्म हो गया।  मैं अपनी पढ़ाई और वहां की जिंदगी मे सामंजस्य बैठाते हुए काफी व्यस्त हो गया था। पता नही उसके साथ क्या हुआ ? उसने भी खबर लेने की कोई कोशिश नाहीं की। समय अपने तय किए हुए रास्ते पर अपने मुताबिक चल रहा था।  

कभी कभी जब आप घिर जाते हैं। कोई रास्ता नही नज़र आता है तो सब कुछ समय पर छोड़ देना चाहिए। प्रारब्ध सर्वोपरि है। यहां इंसान लाचार हो जाता है। कुछ सालों के बाद, अपनी पढ़ाई पूरी कर जब मैं वापस भारत लौटा तो मालूम पड़ा कि उसके घरवालों को हमारे इस रिश्ते का पता चल गया था और उन्होंने जल्दबाजी मे समाज मे बदनामी के भय से उसकी शादी कर दी थी। अब वो एक बेहद खूबसूरत बच्चे की मां है। बच्चा तो मानो उसकी छाया ही है। भरा पूरा परिवार है उसका। मेरी भी सगाई हो चुकी थी। अगले ही महीने मेरी शादी होने वाली है।

अब वो अपनी जिंदगी जी रही है और मैं भी अपनी जिंदगी की एक नई शुरुआत करने जा रहा हूं। कभी कभी लगता है वो क्या था ? नाम तो मैंने दे ही दिया था।पर, क्या उसे सामाजिक मान्यता थी। नही। बिल्कुल नही! समाज तो बस उसी रिश्ते को मानता है, मान्यता देता है जिसे उसने खुद बनाया है। एक अलग सा सोच शायद नही। वैसे भी समाज से अलग कोई भी सोच एक क्रांतिकारी कदम उठाने के समान होता है। शायद समाज की भी अपनी कुछ मजबुरियां हैं। मैं अब भी सोचता हूं, क्या वह एक  'इन्फ़चुएशन' (दीवानापन) था ? हो सकता है ।पर, शायद नही। वो एक दोस्ती थी। दोस्त से थोड़ा ज्यादा, प्यार से थोड़ा कम। हां पलूटोनिक ही था वो। पलूटोनिक लव एक ऐसा शब्द, एक ऐसा रिश्ता जहां अपवित्रता की कोई गुंजाइश नही।

 पलूटोनिक लव एक ऐसा शब्द है जहां दैहिक आकर्षण अपनी प्रासंगिकता खो बैठता है। इसमे व्यक्तिगत शरीर की वासना पर आधारित आकर्षण के बजाय आत्माओं के जुड़ने और अंततः सच्चाई के साथ एक होने पर बल दिया जाता है। यह एक आनंदपूर्ण भावनात्मक संवेदना है।
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लेखक - मनीश वर्मा
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