Friday 31 January 2020

बसंती हवा पुरवाई रे / कवयित्री -सिन्धु कुमारी

कविता

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  बसंती हवा पुरवाई रे
   रग- रग में मस्ती आई रे। 

मह-मह महके मन का मौसम
   नूतन रुत की अंगड़ाई  रे। 

गली में झूम नाचे गोरैया
   अंगना में फुदक वो गाई रे। 

कुहुँ कुहुँ कुहके कारी कोयलिया
 गूंजी उजड़ी अमराई रे। 

खेतों में हरियाली लेकर
 सरसों बाग पियराई रे। 
कवयित्री - सिन्धु कुमारी
पता -  पटना
कवयित्री का ईमेल - sindhukumari1985@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com

Wednesday 29 January 2020

मनु कहिन (16) / कोलकाता डायरी "भाग-2"

धर्म का अर्थशास्त्र
 *गतांक से आगे* (कोलकाता डायरी )

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आप किसी भी शहर मे जाते हैं, अगर आप नास्तिक नही हैं तो चाहे आप किसी भी धर्म या संप्रदाय को मानते हों आपकी कोशिश रहती है कि आप अपने विश्वास और आस्था के चरणों मे सर झुकाएं। आस्था बलवती है। यहां पर आपकी सारी तार्किक योग्यताएं धरी की धरी रह जाती हैं।

 आस्था/ विश्वास और तर्क दो समांतर रेखाएं हैं ,कभी न मिलने वाली। व्यर्थ है, इस संदर्भ मे कुछ भी सोचना। फिर भी, पता नही लोगों के पास कितना समय है इनपर बात करने के लिए। हालांकि, नतीजा सिफर ही है।

हां, तो मैं बात कहीं और करना चाह रहा हूं और इसका सिरा घूम कहीं और जा रहा है। फिलहाल, मैं बात कोलकाता की, वहां के एक विश्व प्रसिद्ध मंदिर, मां काली की कर रहा हूं। कोलकाता आने वाला और खासकर ईश्वरीय शक्ति को मानने वाला हर शख्स बिना मां के चरणों मे अपना सिर नवाए अपना कोई भी काम शुरू ही नही कर सकता है। और हां, अगर इस शहर मे आप स्थानांतरण या फिर किसी अन्य कारणों से रहने आएं तो यह आपका कर्तव्य बनता है कि आप साधिकार मां की चरणों मे अपना सिर झुकाएं। अपने आप को उनके चरणों मे समर्पित कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। यही तो हमारी आस्था, हमारा विश्वास है। मैं भी कुछ इन्हीं वजहों से मां का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए , अपने आप को उनके चरणों मे समर्पित करने के लिए उनके पास गया। उनके पास जाने के लिए हमने ( पत्नी के साथ) देर शाम का समय चुना ताकि भीड़ थोड़ी कम हो जाए और हम मां का दर्शन कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें।

गूगल बाबा की शरण मे जाने पर पता चला कि बुधवार या गुरुवार को रात्रि के आठ बजे के करीब भीड़ कम होती है। तो भाई अपनी सवारी निकल पड़ी। पहले मेट्रो पकड़ कालीघाट स्टेशन पहुंचे और वहां से लगभग एक फर्लांग की दूरी पैदल ही तय कर मंदिर के प्रांगण मे पहुंच गए। वहीं पर पता चला कि आप दो नंबर या फिर पांच नंबर के गेट से अंदर जा सकते हैं। बैरिकेड लगा हुआ था। पर, भीड़ इतनी नही थी कि बैरिकेड के रास्ते जाया जा सके। जो भी भीड़ थी मंदिर के प्रांगण मे ही थी। खैर , हम दोनों पति-पत्नी बाहर एक फूल बेचने वाले के पास चप्पल खोलकर मंदिर के प्रांगण मे पहुंच गए। प्रसाद हम लोगों ने नही खरीदा था। दरअसल, देश के बहुत सारे मंदिरों मे जाने के पश्चात यह अनुभव हो गया था कि अंदर प्रसाद लेकर जाना व्यर्थ है। पुनः यहां आस्था और तर्क मे द्वंद्व जारी है। कुछ पढ़ लिख गया हूं तो कहीं न कहीं तर्क हावी हो जाता है। यहां भी हावी ही रहा। 

अंदर जैसे ही लाइन मे खड़ा हुआ, एक तथाकथित पंडित जी ने ऑफर किया चलिए आपको वीआईपी गेट से लिए चलते हैं। दोनों व्यक्तियों का सौ रुपए लगेगा और हां, सौ रुपए मेरे दक्षिणा के अलग से लगेंगे। मान गए! अति विशिष्ट व्यक्ति! इंसान को और क्या चाहिए! खैर हम दोनों पति-पत्नी बिल्कुल मां के सामने खड़े कर दिए गए। अब हमारा सामना एक दूसरे पंडित जी से हुआ। उन्होंने बड़ी ही व्यग्रता और शीघ्रता पूर्वक मंत्रों का उच्चारण करते हुए कहा कि आप लोगों का मैंने संकल्प करा दिया, पांच सौ रूपए निकालो। क्या करता, निकालना पड़ा। सब कुछ इतना अचानक हुआ कि कुछ सोचने समझने का वक्त ही नही मिला। ऐसा लगा किसी ने मानो सम्मोहित कर लिया हो। सब कुछ यंत्रवत हो रहा था। यह अहसास भी मंदिर से निकलने के बाद हुआ। अब आगे देखिए, उस पांच सौ वाले पंडित जी ने हम दोनों पति-पत्नी को नीचे मंदिर के गर्भ गृह में उतार दिया और हम दोनों पति-पत्नी को अब गर्भगृह वाले बड़े पंडित जी के हवाले कर दिया। बड़े ही आराम से, अब हम दोनों पति-पत्नी मां के चरणों में खड़े थे। बड़े पंडित जी पूजा करवा रहे थे। ऐसा लगा मानो वक्त हमारे लिए थम सा गया हो। अति विशिष्ट व्यक्ति जो ठहरे। हमारी पूरी संतुष्टि के साथ पूजा कराई गई। हमारी निंद्रा तो तब टूटी जब बड़े पंडित जी ने पूजा अर्चना के बाद अपना आदेश सुनाया। चलो, मां के चरणों मे पांच हजार रुपए रखो। मुझे तो काटो तो खून नही। पास मे इतने पैसे थे नही। मैंने पंद्रह सौ रुपए दिए और लगभग डरे हुए मुद्रा मे मुस्कुराते हुए कहा कि आप मेरा पर्स देख लें मेरे पास इतने पैसे नही हैं। पर्स देखने के बाद उन्होंने मुझे कहा चलो दो सौ रुपए और निकालो और जाओ । हम दोनों पति-पत्नी वहां से सरपट बाहर आए। उस अनुभूति को मैं बयान नही कर सकता हूं। पर, आप समझ सकते हैं।

कुछ देर के लिए मुझे ऐसा लगा कि मैं कहां आ गया हूं? क्या मेरी आस्था, मेरे विश्वास का यही मोल है? आप संतुष्ट हो सकते हैं कि चलो पैसा कहां गया? पैसा तो मंदिर के दान पात्र में ही गया। मुझे भी आपत्ति नही है। पर, तरीका ठीक नही रहा। और भी कई मंदिरों मे मैं गया हूं। प्रबंधन समिति ने हर एक चीज के लिए रकम तय कर रखा है। किसी को कोई तकलीफ़ नही होती है। लोग बाग अपनी श्रद्धा, विश्वास एवं क्षमता के अनुसार भगवान के दर्शन करते हैं। पर, यहां तो एक अलग ही व्यवस्था थी। जरूरत है ऐसी व्यवस्था को नियमित और नियंत्रित करने की। आस्था ,विश्वास  एवं क्षमता के मद्देनजर।
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आलेख - मनीश वर्मा 
लेखक का ईमेल - itomanish@gmail.com
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Sunday 26 January 2020

नाम जिसका सुभाष चंद्र / कवयित्री - अलका पाण्डेय

कविता

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नेता था वह देश का नेता
नाम जिसका सुभाष चंद्र
देश की मिट्टी से प्यार हुआ
छोड़ दिया महल चौबारे
त्याग दिया ऐशो आराम
माँ को आज़ाद कराने की मन में ठानी
आज़ाद हिंद फ़ौज खडी कर डाली ।

रण देवी के कदमो में
जा शीष झुकाया 
जनता को फिर वचन दिया 
मैं तुम्हें आज़ादी दिलवाऊँगा
तुम मुझको अपना लहू देना 
यह लेना देना कुछ नहीं 
बस एक वादा निभाना है।

हो जाओ मेर देशवासी तैयार 
जान पर खेलने को हो तैयार 
पहन कर खादी का कपड़ा 
करता नहीं था कोई लफड़ा 
चलता सीना तान कर 
जय हिंद का नारा बोल कर 
चेहरे पर मुस्कान सजा कर ।

"तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा"  नारा देकर
देशवासियो को छोड़ कर
चला गया वो चला गया 
माँ की गोद में सो गया 
आज़ादी का सपना दे गया
जवानों में जोश भर गया 
नेता सुभाष नेता सुभाष ।
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कवयित्री- अलका पाण्डेय
कवयित्री का ईमेल - alkapandey74@gmail.com
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मकर संक्रांति / कवयित्री - डॉ अलका पाण्डेय

कविता 

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तिल गुड़ देते है
संक्रांति मनाते है 
ठंडी ठंडी बहे पुरवइया
मन को लुभाती रजइयां 
धरा ने पहनी धानी चुनरिया
तन मन में उमंग हर्ष समाया 
मक्रर संक्रांति का त्यौहार
तिल गुड़ खिचड़ी का त्यौहार

तिल गुड़ देते है
संक्रांति मनाते हैं
पंडित उपदेश सुनाते
मन में उलझन उपजाते
तरुवर पर कोयल बोले
हृदय में आनन्द घोले
तिल गुड़  सब को भाये
संक्रांति सब मनाये

पुष्प वटप लता पर इतराये
जन मानस का मन हर्षाये
तरुवर के नव पल्लव झूमें
बच्चे सारे  झूमें नाचे गावे
पतंगों के बाज़ार सजे
सतरंगी पतंगें मन में उलझीं

पतंगों के पेंच आकाश लड़ें
डोर पकड़ बच्चे करतब करे
हिया में तरंगें गगन चढे
कदम थिरक थिरक
पतंग लहराये
तिल गुड़ देते है
संक्रांति मनाते है

पीली पीली सरसों लहराये
किसान खेत दोनों झूमन लागे
बसंत का हुआ आगमन
धरा का आंचल लहराये
गौरी झूला झूलन लागे
सखियां सब शिकवा करन लागे
आया मक्रर संक्रांति का त्यौहार
तिल गुड़ और खिचड़ी का त्यौहार.
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कवयित्री- अलका पाण्डेय
कवयित्री का ईमेल - alkapandey74@gmail.com
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Saturday 25 January 2020

मनु कहिन (15) / कोलकाता डायरी "भाग-1"

हड़बड़ी से कोसों दूर

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कोलकाता! भाई यूं ही नही भद्रजनों का प्रदेश है। तमाम राजनीतिक और सामाजिक विविधताओं के बावजूद सभ्यता और संस्कृति यहां आपको राह चलते अहसास दिलाते हैं। जिस प्रकार से दैनंदिन जीवन में आपको अनुशासन का अहसास होता है, वह आपको बिरले ही कहीं और नजर आता है। हिंदुस्तान के कई हिस्सों मे किसी न किसी कारण से दो-चार दिन रूकने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, पर कहीं भी आपको दिन प्रतिदिन के कामकाज मे इतना अनुशासन देखने मे नही मिलेगा।  यह इनके जीवन का हिस्सा है। ऐसा नही कि लोग इसे भार समझते हैं। शहर में इतनी भीड़ है कि अगर अनुशासन न हो तो जिंदगी बड़ी बेतरतीब हो जाएगी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हम सभी गैर कोलकाता वासी भी यहां बड़े ही अनुशासित हैं। अच्छा लगता है यह सब देखकर। काश! अपनी- अपनी जगहों पर हम इतने ही अनुशासित होते!

पर, हां अगर आप इनके लाइफ-स्टाइल को गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि अनुशासित रहना कहीं न कहीं इनकी मजबूरी भी है। महानगरों मे अगर आप अनुशासित जीवन नही जीते हैं तो कोहराम मच जाएगा। आपने, अक्सर किसी बड़े हादसे के बाद लोगों को कहते सुना होगा कि महानगरों मे जीवन ठहरता नही है। लोग बड़े ही साहसी होते हैं। गिर कर, ठोकरें खाने के बाद भी संभलना जानते हैं। पर, साहब महानगरों की जीवन शैली ही ऐसी है जो रूकना चाहकर भी नही रूक सकती है। कुछ समय के लिए अगर रूक गयी तो कितनी जिंदगियां थम जाएंगी। निरंतर चलते रहना नियति है।

हां, जो एक बात जो मैंने कोलकात्ता वासियों मे गौर किया है वो कि इनका किसी काम को करने का अंदाज बड़ा ही निराला है। बड़े ही बेतकल्लुफी और आराम से कोई भी काम करते हैं ये लोग। जल्दबाजी या हड़बड़ी तो इनके शब्दकोष मे तो शायद है ही नही। अच्छी बात है, तभी तो सभ्यता और संस्कृति यहां परवान चढ़ी।

कोलकात्ता वाले अगर कहीं अनुशासन की पराकाष्ठा पर होते हैं तो वो इनका ट्रेफिक नियमों के मानने मे है। क्या मजाल कि कोलकात्ता वाले आपको ट्रेफिक नियमों को तोड़ते हुए पाए जाएं। लोग एकबारगी पुलिस को नजरअंदाज कर सकते हैं पर, ट्रेफिक सिग्नल और ट्रेफिक नियमों को नही। ऐसा नही है कि लोग यहां रैश ड्राइअविंग नही करते हैं पर, सार्जेंट की पर्ची से अपने आप को बड़ी दूर रखते हैं। ट्रेफिक सिग्नल को अमूमन फालो किया जाता है। शहर का ट्रेफिक अमुमन काफी धीमा है। घिस घिस कर चलता रहता है। ट्रेफिक का दबाव सड़कों पर इतना होता है कि आप सामान्यतः देखेंगे ट्रेफिक पुलिसकर्मियों को जोर जोर से चिल्लाते हुए ट्रेफिक कंट्रोल करते हुए। यह काम चुपचाप भी किया जा सकता है भाई। अपने शरीर पर अत्यधिक बोझ आपके खुद के लिए ही नुकसानदेह है।

कोलकात्ता शहर मे आप यह भी देखने को मिलेगा कि पुरा का पुरा फूटपाथ, फेरी वालों और छोटे छोटे फूड ज्वाइंट से पटा पड़ा है। जहां सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक भीड़ नजर आती है। आश्चर्य की बात है, कहने को महानगर है पर, खाने का मेनु बिल्कुल घरेलू। आप पुरी सब्जी, नुडल्स, इडली - डोसा,  सैंडविच के साथ ही साथ चुडा दही एवं खिचड़ी का भी आनंद ले सकते हैं। मेनु मे पुरे हिंदुस्तान से आए हुए लोगों को समाने की कोशिश। पूरा का पूरा समाजवाद। 

कहने को स्ट्रीट फूड है पर कुछ एक जगहों को छोड़कर लगभग छोटे छोटे फूड ज्वाइंट से कोलकात्ता शहर का हर फूटपाथ पटा पड़ा है। पर, इसके बावजूद एक बात जो काबिले गौर है कि कहीं भी फूटपाथ पर चलने वाले पर कोई रोक टोक नही है और न ही फूड ज्वाइंट वालों को कोई परेशानी है। उसी फूटपाथ पर लोग होटल चला रहे हैं। लोग-बाग खाना खा रहे हैं। आने जाने वाले लोग फूटपाथ का इस्तेमाल भी कर रहे हैं। किसी को कोई दिक्कत नही, कोई परेशानी नही। अंतर भी साफ दिखाई देता है। एक तरफ कोलकात्ता का दिल पार्क स्ट्रीट और उसके आसपास का एरिया कामाक स्ट्रीट वगैरह है जहां एक से एक बढ़कर रेस्तराँ और होटल हैं जहां आकर आम आदमी सपनों की दुनिया मे खो जाता है । वो हकीकत भूल जाता है। जिंदगी उसे परी कथाओं सी लगने लगती है। चलिए कम से कम कुछ ही देर के लिए सही , कुछ तो सुकून के पल गुजारता है बेचारा आम आदमी। तो वहीं दूसरी तरफ चौरंगी के आसपास, एवं  प्रसिद्ध मिठाई की दुकान केसी दास के लगभग पीछे वाली गली है जो स्ट्रीट  फुड ज्वाइंट  से पटी पड़ी है और आम आदमी के खाने-पीने का ख्याल रखती है।‌‌। आपको पुनः सपनों की दुनिया से उठाकर आपको अपनी जगह ले आता है। 
*क्रमशः* 
......

आलेख - मनीश वर्मा 
लेखक का ईमेल - itomanish@gmail.com
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Sunday 5 January 2020

मनु कहिन (14) - वीआईपी सिंड्रोम

ललित निबंध

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हम अति विशिष्ट व्यक्ति हैं। क्या आपको ऐसा नही लगता है! मुझे तो लगता है कि सिर्फ मैं ही नही हम सभी अति विशिष्ट व्यक्ति हैं। वी वी आई पी सिंड्रोम से पीड़ित हैं हम सभी । अब देखिए ना, पैसा बराबर लग रहा है पर, बस मे पीछे की सीट पर बैठना खल जाता है। सीधे दिल पर चोट पहुंचती है। ट्रेन की सवारी कर रहे हैं और किसी कारणवश रिजर्वेशन ऊपर की सीट या फिर साइड वाली सीट का मिल जाए, वैसे देखा जाए तो कोई खास फर्क नही पड़ता है पर, साहब ऐसा लगता है मानो हम देश के दोयम दर्जे के नागरिक हैं। हमारी तो कोई सुनने वाला ही नही है। बिल्कुल दीन हीन हैं भाई साहब हम। अब  फिर देखिए न, फ्लाइट मे पीछे की रो मे बैठा दिया गया। अब किस किस को अपना दुखड़ा सुनाएं। हमें तो कोई पूछता ही नही। भाई हमने भी बराबर के पैसे दिए हैं। अब अपने दिल को कैसे समझाऊं! दिल है कि मानता नही! कैसे बताऊं कि मुझे भी अति विशिष्ट व्यक्ति के रूप मे सम्मान चाहिए। 

व्यापारी वर्ग आपकी इन समस्याओं को बखूबी समझता है । तभी तो कभी एक्सट्रा लेग स्पेस के नाम पर तो कभी प्रीमियम सीट के नाम पर आपको खुश रखते हुए आपको अति विशिष्ट व्यक्ति के होने का अहसास दिलाते हुए आपके जेब का कुछ बोझ हल्का कर जाता है। आप एक भ्रम की दुनिया मे जी रहे हैं। जिंदगी यह नही है जो आप जी रहे हैं या जीना चाह रहे हैं। जिंदगी इन सभी से परे है मेरे दोस्त। इसका मजा लें। इसे किसी दायरे मे न बांधे।

हां पर एक बात है। आम आदमी होना कभी कभी बहुत खल जाता है। उस वक्त लगता है क्यों हम आम आदमी हैं! क्यों नही हमे भी अति विशिष्ट व्यक्ति का दर्जा प्राप्त नही है। जब पीछे से पुलिस की हूटर बजाती हुई, किसी अति विशिष्ट व्यक्ति की गाड़ी को स्कार्ट करती हुई महिन्द्रा थार या मारूति जिप्सी एवं उसके पीछे डंडा निकाल  बैठा हुआ व्यक्ति जब डंडे के मुभमेंट को ही अपनी भाषा मान ले और आगे बैठा हुआ व्यक्ति जब माइक पर तू तडाक की भाषा का इस्तेमाल करते हुए , आपको किनारे होने का आदेश देते हुए जब निकलता है न भाई तब वाकई महसूस होता है , अपने अति विशिष्ट व्यक्ति न होने का। ऐसा लगता है मानो किसी ने भरे चौराहे पर आपको थप्पड़ जड़ दिया हो और आप अपनी नजरों से ही नजर चुरा रहे हैं। यह अहसास ही आपको एक तड़प का अहसास दे जाता है।

पर, अति विशिष्ट व्यक्ति होना, क्या यह संभव है ? है ! बिल्कुल है। नियमों को रिलिजियसली फौलो करें। संविधान में आस्था रखें। न्यायशील बनें । आप खुद मे अति विशिष्ट व्यक्ति हैं। अति विशिष्ट व्यक्ति की परिभाषा क्या है! सामान्य तौर पर यही न कि आप औरों से अलग दिखाई दें। आपकी पहचान अलग हो। आप औरों से अलग जाने पहचाने जाएं। बहुत रास्ते हैं। ढेरों विकल्प हैं आपके सामने। आप अपने कर्मों से 'आउटस्टेंडिंग' हो जाएं। दुनिया आपको नोटिस करने लगेगी। आप अति विशिष्ट व्यक्ति हो जाएंगे। आपको चुनाव करना है। हां पर एक तय बात है! ज्योंही आप अति विशिष्ट व्यक्ति की श्रेणी मे शामिल हो गए, आपकी स्वतंत्रता तो गई समझो। आपके अपने स्पेस खत्म हो जाएंगे साहब। और तो और आपका पारिवारिक जीवन, आपका सामाजिक जीवन सब खत्म हो जाएंगे। आप अपने दोस्तों को शायद खो दें। अकेले हो जाएंगे आप !?!?बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी आपको। तय कर लें आप। अब तय आपको करना है। आप अति विशिष्ट व्यक्ति हैं या नहीं।

मैंने शुरुआत मे ही कहा कि यह एक सिंड्रोम है। अब गेंद आपके पाले मे है। अति विशिष्टता को संविधान के दायरे मे ही छोड़ दें। जहां इसकी जरूरत है। अपने आप को आम आदमी ही बने रहने दें। बेड़ियों मे इसे न जकड़े। जिंदगी का भरपूर मजा लें।
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आलेख - मनीश वर्मा 
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