Thursday 12 September 2019

पिता की दास्ताँ / कवि - विजय कुमार

 पिता की दास्ताँ 

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१)
चले जब साँसे तो बहता है सागर
पिता के समर्पण भाव का
दौड़े रग में ख़ून तो कहती है ज़िंदगी
पिता के परम सार की कहानी
तन हो दो पर मन सदा रहे एक
फ़र्ज़ के पथ पर चल सकूँ बहुत थोड़ा भी
ख़ुद को ही खोज सकने की कोशिश में। 

२)
कोमल मन वही बस धड़ का रूपांतरण 
पिता के कर्मठ मन से
ख़ुद को गढ़ने चलूँ जैसे नवसृजित रूप
पिता की दृढ़ संकल्प का
उनके लब्ज को दिशानिर्देश मान
और पाने चल दूँ अंतिम लक्ष्य को
सम्मान करूँ सदा अतुल्य पद-चिन्ह को
चलूँ चंचल मन को सँवारते

३)
बढ़े जब सिलसिला पाने एक जीवंत रूप 
पिता के समर्थ भावों का
कहे स्पष्ट सुंदर मन देखते अकल्पित रूप
पिता से साक्षात हुए वार्तालाप का
अंधकार से उजाले में देखूँ जो पल-पल 
अद्वीतीय अनगिनत क़दमों को
ज़ंजीरों के मूल्यों में रखे ख़ुद को अटूट
बनाने हमें डगर डगर मज़बूत 

४)
रुक गयी धड़कने, रह गया मैं बस तड़पते
पिता का अदृश्य साथ
निभा लूँ कुछ और फ़र्ज़, उतारूँ क़र्ज़ बचाने
पिता की वही साख
रीति-सृष्टि कर्तव्य-निष्ठा की मधुर परीधि में
पिता से लिया संस्कार
मन से, मन के मन से, कर सकूँ फिर उन्हें याद 
वृतांत अब एक यादों के सहारे 
...
कवि - विजय कुमार
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