Wednesday 9 October 2019

दर्द तो है / कवि - विजय बाबू

कविता 

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ज़िंदगी है क़लम से, क़लम की धार से
भीड़ में जाकर भीड़ से ही निकल सकूँ
लिख सकूँ कुछ आगे व पीछे हटकर
पाकर भी कुछ खोने का... दर्द तो है।

जीने का बहाना ढूँढता है मेरा मन
आगे चलने का इरादा रखता है मेरा मन
रुकता है, ठहरता है उठता है बार-बार
बढ़े तो कहे, रुके तो कहे... दर्द तो है

मासूमियत मन की कहे- जी सकूँ मर्ज़ी से
मजबूरियाँ तके अपना वजूद संघर्ष से
स्वप्निल मन की मंज़िल रहे सदा संघर्षरत
मुक़ाम भी मुकम्मल नहीं... दर्द तो है।

नदी की धार में, पर्वत-घाटी की सैर में
मन को लुभाते रहते यूँ ही कुछ पल
चाहा जो मिला तो एक किनारे का सहारा
मिलकर भी पर अधूरी यात्रा... दर्द तो है
...
कवि - विजय कुमार 
कवि का ईमेल - vijaykumar.scorpio@gmail.com
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