Sunday 19 July 2020

आश़िकी (व्यंग्य) भाग-१ / पथिक आनंद

कविता 

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आज बरबस ही कुछ, याद दिला गया कोई,
पन्ने अतीत के झरोखे से, निकलते गए कई।
छेड़े थे बस दिल के, धूमिल पड़े वो तार कोई,
धूल की परत दर परत, किस्से बयां कर गए कई।।

बात सुहानी बैंगलूरू के सरकते ट्रैफिक की है,
पड़ते ही पहली नजर दिल में बस गई थी वो,
कैसे जम सी गई थी उसपर मेरी पैनी वो नजर ,
जद्दोजहद मन और नयन की आज भी याद है।।

लौटकर अपने शहर भी नजरें वहीं टिकी थी,
सवाल अगणित, दिल तक हिलकोरे लगा रही थी।
साल मेरे फेसबुक के शुरूआती दौर का था वो,
तस्वीर उसकी जो मिली, वही सारे वालपेपर बने मेरे।।

वक़्त बीतता गया आश़िकी गहराती चली गई,
अपनाने की कोशिश उसको जब सार्थक हुई,
जिंदगी किसी और खालीपन की गिरफ्त में थी,
सूकून हर रात उस की गोद में बैठे सपनों की सैर में था।।

वो दौर तब भी था वो आलम आज भी है,
सज सँवर के जब हम साथ निकलते हैं,
निगाहें औरों की जम सी जाती है हमपर,
लौटकर वो भी शायद, गूगल किया करते हैं घर पर।।

ये दास्ताँ है पथिक की पहली आश़िकी की,
खूबसूरत इठलाती मेरे स्टाइलिश मोटरसाइकिल की।
दो पहियों पर सरपट दौड़ती ज़िन्दादिली की,
पेशे खिदमत, और इंतज़ार है आपकी खुलकर हंसी की ।।
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कवि - पथिक आनंद 
कवि का ईमेल आईडी - eeanand@yahoo.com
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