कविता
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करूँ संचरण
चेष्टा है ज्ञान-अर्जन,करूँ जिसके लिए मैं संचरण।
ज्ञान की पूजा करूँ
बन ज्ञान का मैं संचारी।
सीखने की चाह जिसमें
बनूँ मैं उसका उद्धारी।
चेष्टा है ज्ञान-संपोषण,
करूँ जिसके लिए मैं संचरण।
सर्वांगीण विकास घ्येय हो मेरा,
हर बालक बने सुजान।
ख्याति उसकी हो चहुँ दिश ,
कीर्ति का भी हो बखान।
चेष्टा है ज्ञान-समर्पण,
करूँ जिसके लिए मैं संचरण।
सम्पूर्ण जीवन दूँ मैं इसको,
करूँ मैं जग को यह अर्पण।
संजीवनी यह जिसे पीकर,
हो प्राप्त सबको संतुलन।
चेष्टा है ज्ञान-संरक्षण,
करूँ जिसके लिए मैं संचरण।
स्वयं से इतना कहूँ -
कर न तू बस ज्ञान-अर्जन,
कर तू इसका संस्करण।
ज्ञान की आभा मिले तो,
हो समुज्ज्वल यह धरा।
न कोई संत्रस्त हो फिर ,
हो जाए सस्मित वसुंधरा।
चेष्टा बस ज्ञान संवर्धन,
करूँ जिसके लिए मैं संचरण।
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कवयित्री - दीपा आलोक
कवयित्री का ईमेल आईडी- deepaalok2@gmail.com
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