Sunday 20 September 2020

दि ब्लेड रनर / लेखिका - कंचन कंठ

प्रेरक कहानी 

(मुख्य पेज - bejodindia.in / हर 12  घंटे  पर  देखिए -   FB+  Bejod )




"कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है-फिर बीच-बीच में वो किधर जाता है!" "मैंने जान निकाल लेनी है तेरी-" रीमा जोर से अपने भाई सनी पर चीखी,जिसने उसके गाने की कोशिश पर टपककर उसका सत्यानाश कर दिया था।

वो था ही इतना चंचल, मुंहफट और रीमा से तो- उफ्फ ; भगवान बचाए, बिल्कुल छत्तीस का आंकड़ा था! दिन में कितनी बार तो दोनों में ये रस्साकशी चलती ही रहती थी। शैतानियां भाई से छुटती नहीं थीं और बहन से बर्दाश्त नहीं होती थीं।बचपन तो बचपन, अब तो दोनों कॉलेज में आ गए थे, पर ये कुत्ते बिल्ली का खेल चलता ही रहता था।

रीमा बड़ी मेहनती थी और अपने पढ़ाई और ग्रेड्स को लेकर चिंतित रहती थी, वहीं सनी झट से बोल देता ; "अरे भाई, तू मुझे चपरासी रख लेना, हम्म्म नहीं तो शोफर रख लेना अफसर बनकर! जब तू है तो क्या गम है !" फिर जीभ चिढ़ाकर भाग जाता। मम्मी-पापा किसी के समझाने का कोई असर नहीं। सब अक्सर उसके खिलंदड़पन से परेशान थे।

वैसे वो ठहरा स्पोर्ट्स में चैंपियन और उसी बलबूते उसके कई काम भी हो जाते! उसने स्टेट लेवल पर मैराथन में कई सारे गोल्ड लिए थे और अब नैशनल्स के लिए लखनऊ से दिल्ली जा रहा था। उस समय मुख्य अतिथि खेल मंत्री ने तो उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की। उसे इस स्पर्धा में भारत का भविष्य बताया। यह स्पर्धा का पहला राउंड ही था, तो खिलाड़ियों को टिकट्स वगैरह खुद कराना था।

नियत समय पर "वैशाली एक्सप्रेस"रवाना हुई, सब बड़ा अच्छा लग रहा था। सनी भी पूरी मौज में था। उसने गाना शुरू किया, तो लोग एकदम से आकर्षित हो गए,आखिर मंझे गले का वरदान जो पाया था, मां सरस्वती से!
अच्छी कद-काठी और इस सुरीले गले से लोगों का तो दिल जीत लिया उसने! सब उसकी प्रशंसा करने लगे, कइयों ने सेल्फी लेनी शुरू कर दी और उसके सुनहरे भविष्य की मंगलकामना भी की।

यूं ही सफर हंसी-मजाक में कटता जा रहा था,अब रात गहराने लगी थी कि पता नहीं कहां से कुछ गुंडे ट्रेन में घुस आए और लगे महिलाओं और लड़कियों के गहने छीनने! साथ-साथ में भद्दी फब्तियां भी कसते जा रहे थे। पलभर में सारा माहौल बदल गया।लोग डर के मारे अपने में सिमट कर रह गए। सनी कभी इस तरह के हादसे से दो-चार नहीं हुआ था, ना उससे वो गंदी बातें बर्दाश्त हो रही थीं।

गुस्से में आकर उसने उन गुंडों को ललकार दिया। आखिर अच्छी-खासी बॉडी थी और गलत को चुपचाप सहना सीखा  था नहीं! वो गुंडे किसी के कानों की बालियां खींच रहे थे तो किसी के चेन। ऐसे ही जब उन्होंने अपने गंदे हाथ एक लड़की की तरफ भद्दे कमेंट करते बढ़ाए तो,सनी ने जोर का धक्का दिया, जिससे वो दूर जाकर गिरा। एकबारगी तो गुंडे अचकचा गए, पर फिर सबने सनी पर एकसाथ धावा बोल दिया।

सनी ने भी जमकर प्रतिरोध किया, लेकिन जिनकी सुरक्षा के लिए उसने ये कदम उठाया, वो सब मारे डर के दुबक गए। कोई भी हाथ सनी की मदद को न आया। काफी देर तक लड़ाई के बाद हथियारों से लैस गुंडों ने उस पर काबू पा ही लिया आखिर! बेचारे बेदम बच्चे को मार-पीट कर भी उनका दिल ना भरा तो उसे चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया।

ना जाने रात के कितने बजे थे, जब ट्रेन की तेज सीटी से उसकी आंख खुली। ज्यों  ही उठने की कोशिश की, दर्द की तेज लहर पूरे शरीर को अधमरा कर गई।उसने खुद को दो पटरियों के बीच पाया। कुछ देर तो उसे समझ ही नहीं आया फिर जब उसे पिछली घटना का स्मरण हुआ तो धीरे-धीरे उसे याद आई सारी बातें। उसने अपने पैरों को समेटना चाहा पर जांघों के नीचे कुछ पता ही ना चला, दर्द की एक तेज लहर उसके शरीर को ज्यों चीरती हुई निकल गई। दर्द हर वक्त बढ़ता ही जा रहा था। जब जब कोई ट्रेन गुजरती तो रोशनी में उसने देखा कि पैरों से निरंतर खून बह रहा था और पटरियों पर बिलों में रहने वाले चूहे उसके पैरों को कुतर रहे थे।

वह तो वेदना के अथाह समंदर में डूबता चला जा रहा था। इस नीरव रात्रि में उसका रुदन सुननेवाला कोई नहीं! कभी चिल्लाता, तो कभी रोने लगता! पर ट्रेनों की आवाज में सब बेकार!

जिन लोगों के लिए उसने ये मुसीबत मोल ली थी ; वे ना तो तब उसकी मदद को आए और ना ही किसी ने भी किसी स्टेशन पर कोई रिपोर्टिंग ही की! सनी तो कब तलक उसी अवस्था में पड़ा रहा, उसे कुछ याद नहीं। उसने तो बचने की आशा ही छोड़ दी थी। उसकी पलकें मुंदने लगीं और वह बेहोशी के आलम में यूं कब हो, क्या हो- से बेखबर हो चला। जब आँख खुली तो उसने देखा कि किसी हास्पीटल के बेड पर पड़ा था। उसे होश में आया जान सभी डाक्टर, कंपाउंडर वगैरह लपक कर उसके पास आए । तब तक घटना की सूचना पुलिस को दे दी गई थी तो इंस्पेक्टर ने वहां से भीड़ को हटाया और उससे पुछताछ करने लगे।

उसे जानकर बड़ा आघात लगा, कि जिन लोगों के लिए उसने इतना सब झेला, उनमें से किसी ने भी न उसकी मदद की, ना ही कहीं घटना की रिपोर्ट की! वो तो गांव वाले थे जो पटरी पर से उसके क्षत-विक्षत शरीर को लेकर आए थे। वह फिर से बेहोश हो गया। डाक्टर पुनः उसके उपचार में जुट गए। तीन चार दिनों के अथक प्रयासों के बाद उसे फिर होश आया,तो उसने मम्मी पापा से मिलने की इच्छा व्यक्त की। पता चला वह भी टीवी पर इस घटना को देखकर पहुंचे हुए हैं। ज्यों ही उसने उठने की कोशिश की,तो एक भयानक सच उसके सामने था। इस दुर्घटना में उसके दोनों पैर चले गए!

 हां! हतभाग! जिन पैरों से उसने इतना नाम कमाया, जिनसे ओलंपिक में गोल्ड मेडल लाना उसका ख्वाब था, अब वो पैर ही ना रहे। दौड़ना तो दूर अब तो खड़े होने के लिए भी सहारा चाहिए। उसके सारे सपने; मम्मी- पापा की सारी आशाएं चकनाचूर हो गई थीं। उसे बार बार बेहोशी के दौरे पड़ रहे थे। जीने की ना तो कोई वजह थी. ना, कोई ख्वाहिश बची थी। मां-बाप भी बेचारे बेटे की ये हालत देखकर अधमरे से हो गए थे।

 रीमा ने जब यह सुना तो झट हाॅस्टल से घर आ गई थी। उससे सबकी ये हालत देखी नहीं जा रही थी। इलाज तन का तो हो रहा था। पर मन साथ ना हो तो वह काफी नहीं था। यहां तो जैसे सब मस्तिष्क से सुन्न हो गए थे; कौन किसको देखे और किसको समझाए! पर जी कड़ा करके उसने स्थिति को संभालने का बीड़ा उठाया। छोटी थी तो क्या; सबसे पहले मम्मी पापा को समझाया कि भैया के संग बुरा हुआ, लेकिन यह तो सोचो कि वो हमारे साथ तो है, नहीं तो क्या करते हम सब! 

 रोज थोड़े -थोड़े बदलाव करती, कभी खाने में नये व्यंजन बनाती, कभी रुम अरेंजमेंट में बदलाव तो कभी दोस्तों को घर पर बुला लेती। पर कुछ भी करके सनी का डिप्रेशन दूर न होता! यूं लगता जैसे कि वो वहां है नहीं; किसी और ही दुनिया में गुम रहता!

सभी सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं के दरवाजे खटखटाये लेकिन सभी ने इस दुर्घटना से उबरने का खर्च उठाने से इनकार कर दिया! रीमा को परिवार को वापस खड़ा करने के लिए दिन-रात मेहनत करनी पड़ रही थी; कई मोर्चों पर एक साथ! मां-बाप तो अब लगभग सामान्य हो चुके थे,पर अपने प्यारे दुलारे भाई की हालत उससे देखी नहीं जा रही थी। पूरा एक साल गुजर गया ;उसने न दिन को दिन समझा ,न रात को रात!अपनी पढ़ाई,अपना कैरियर सब भूल-बिसरा कर केवल और केवल सनी की चिंता में लगी रहती ।

 एक दिन उसने "दीपा कामटकर" का साक्षात्कार देखा तो भाई को लेकर टीवी के आगे बिठा दिया और कहा कि "आप भी अपने आप को साबित कर सकते हो भैया, हम है आपके साथ! अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, आप कोशिश तो करो!"उस दिन सनी फफककर रो दिया और खूब रोया! साल भर का गुबार; दिल के छाले फूट-फूटकर आंखों से बह निकले।उसने अपनी हामी भरी और पक्के मन से इस स्थिति से बाहर आने का निर्णय लिया।

 फिर तो शुरू हुआ विभिन्न इलाकों के डाक्टरों से मिलना, उनकी राय लेना और सुझावों पर अमल करना। रीमा ने जयपुर फुट के बारे में जानकारी प्राप्त की। फिर भाई को कैसे, उसकी आवश्यकता के लिए उसमें किस प्रकार के बदलाव चाहिए, पहनने के बाद उसे क्या कठिनाई हुई और बेहतर कैसे बनाया जाए; सारा समय यही सब सोचते करते बीतता! अपने-आप को तो भुला ही दिया उसने!

 वो चार  सदियों से लंबे साल कैसे गुजरे; भाग दौड़ करते हुए, न तन की सुध ना मन की फ़िक्र; हमेशा भागम-भाग! पर अब अनिश्चितता की एक लंबी काली रात, सुहानी सुबह में तब्दील हो गई थी; जब सनी पैरालंपिक में नेशनल्स के लिए गोल्ड अपनी प्यारी छोटी बहना को समर्पित कर रहा था; सनी "द ब्लेड रनर" जिसका पूरा नाम था संजय दीक्षित!
.......

लेखिका - कंचन कंठ
लेखिका का ईमेल आईडी - kanchank1092@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com