Friday 4 September 2020

मायने / मनीश वर्मा

विचार

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एक वक्त था, जब प्यार मे लोग जीने मरने की कसमें खाते थे! और एक वक्त ऐसा आया, अब प्यार मे लोग मरने - मारने पर उतारू हैं. 

प्यार के मायने बदल गए हैं. वो एक प्यार था, जब लोग यादों के सहारे पूरी जिंदगी काट दिया करते थे और आज!  थोड़ी यादों मे कमी आई तो जिंदगी ले लेते हैं. मानो प्यार, प्यार न होकर कोई वस्तु हो! शायद, युग परिवर्तन का असर इसपर कुछ ज्यादा ही पड़ा है. प्यार में त्याग और समर्पण की जो भावना हुआ करती थी उसका स्थान 'ओबसेशन'(सनक) ने ले लिया है.क्या कहेंगे इसे आप? कहीं न कहीं सामाजिक स्तर पर बड़े बदलाव का द्योतक है यह. हम समझ नही पा रहे हैं. आज कहने को सोशल मीडिया की वजह से हम सभी का सामाजिक दायरा काफी बढ़ गया है पर, वास्तविकता है कि हम अपनों से, अपने समाज से कटते जा रहे हैं. हमारा आभासी  (Virtual) दायरा बढ़ता जा रहा है और वास्तविक दायरा सिकुड़ता जा रहा है. 

भावनात्मक क्षणों को हमलोगों ने गिनती के कुछ शब्दों मे समेट कर रख दिया है. कोई भी मौका हो, हम दो या तीन शब्दों या फिर सामने वाला अगर बहुत करीब का हुआ तो कुछ वाक्यों मे कुछ रटे रटाए, काॅपी पेस्ट शब्दों के सहारे अपनी भावनाओं को व्यक्त कर हम अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं.

वाकई, समय की कमी हो गई है. शायद, कुछ अप्रत्याशित खगोलीय घटनाओं की वजह से दिन के 24 घंटे में कुछ कमी आ गई है !

भाई, अगर ऐसा कुछ नही हुआ है तो आखिर समय कहां चला गया ? थोड़ा आत्ममंथन करें ! अपने आप को जगह दें. अपने आप को, अपने परिवार को, समाज को जानने की कोशिश करें. अब भी वक्त है संभल जाएं. गुलामों की जिंदगी से बाहर निकलें. गुलामी न कल अच्छी थी न आज अच्छी है. फिर क्यों गुलामों की जिंदगी जी रहे हैं? क्यों अपने आप को दायरे मे बांध कर अपनी दृष्टि, अपने विज़न का दायरा सीमित कर रहे हैं?
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लेखक - मनीश वर्मा 
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