Tuesday 11 February 2020

मनु कहिन (17) / कोलकाता डायरी *भाग-3*

शोभा बाजार की शोभा
 *गतांक से आगे* (कोलकाता डायरी)

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कोलकाता का शोभा बाजार ! कोलकाता शहर के उत्तर मे बसा हुआ एक भाग।

यह भाग सुतानूति के नाम से भी जाना जाता है। जब आप मेट्रो रेल से दमदम की ओर जाएंगे तब दमदम से दो-तीन स्टेशन पहले शोभा बाजार आता है। यूं तो बडा ही समृद्ध इतिहास रहा है इस क्षेत्र का। सेठ साहूकारों  और बसाकों का क्षेत्र रहा है। बसाक मूलतः बंगलादेश के रहने वाले थे। अंग्रेजों के आने से पहले बसाक और सेठ इस क्षेत्र के बड़े ही रसूखदार लोग थे। सूतानूती के कपड़े और धागों के व्यापार पर उनका एकाधिकार था। कालांतर मे  मारवाड़ियों ने उनका एकाधिकार समाप्त कर पुराने सुतानूती बाजार का नाम बदलकर बड़ाबाजार कर दिया। उन्हीं  बसाक मे से एक शोभाराम बसाक के नाम पर लगभग १८वीं सदी के आसपास इस क्षेत्र का नाम शोभा बाजार पडा। 

जब पलासी की लडाई के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने फोर्ट विलियम का निर्माण कार्य शुरू किया तो जहाँ आज फोर्ट विलियम है , वह इलाका गोविंदपुर के नाम से जाना जाता था। फोर्ट विलियम के निर्माण के दौरान अंग्रेजों ने वहाँ के लोगों को अन्य जगहों के अलावा शोभा बाजार मे भी बसाया। महाराज नवकृष्ण देव, जिन्हें आप इस क्षेत्र का निर्विवाद अघोषित राजा मान सकते हैं उन्होंने इस क्षेत्र मे काफी कुछ किया। शोभा बाजार स्थित रजवाड़ी उनकी ही देन है। शोभा बाजार रजवाडी मे १७५७ से शुरू हुआ दुर्गा पूजा उनका ही शुरू किया हुआ है।बडे बडे रइसों एवं अंग्रेज लाटसाहबों के पूजा मे आने की वजह से इसकी प्रसिद्धि काफी बढी।नाचने वाली लडकियां जो अमूमन मुस्लिम समुदाय से होती थीं, यहां की मुख्य आकर्षण हुआ करती थीं।

 एक अलग ही अनोखापन था यहाँ होनेवाली दुर्गा पूजा का बंगाल के अन्य हिस्सों मे होनेवाली पूजाओं से। यहां की पूजा मे देवी दुर्गा को अन्न का भोग न लगाकर उन्हें घर की बनाई गई मिठाइयों का भोग लगाया जाता था। यही वजह है कि बंगाल के अन्य भाग खासकर बर्दमान से आए हुए हलवाइयों ने यहां अपनी जगह बनाई।
शोभा बाजार की पूजा में देवी दुर्गा को मुगलों और अवध के नवाबों के द्वारा डिजाइन की गई ज्वैलरी ही पहनाई जाती थी। 

यूं तो शोभा बाजार अपने आप मे ही एक खास पहचान समेटे हुए  है, पर शोभा बाजार की एक खासियत यहां की जात्रा मंडली भी है। इसका भी अपना एक अलग इतिहास है। एक लाइन से लगभग ५०-६० जात्रा मंडली वाले यहां अपनी दुकानें लगाए बैठे हैं। यह एक बड़े उद्योग की तरह है। बंगाल, असम, उड़ीसा, बंगलादेश लगभग वैसे तमाम क्षेत्रों मे आपको जात्रा मंडली वाले मिल जाएंगे जहां बंगला बोलने बाले लोग रहते हैं। वैसे तो जात्रा की शुरुआत तो भक्ति काल मे चैतन्य महाप्रभु के समय से ही हो गई थी। पर, शोभा बाजार मे इसे लाने का श्रेय भाग्य कूल राय जो बंगलादेश के भाग्य कूल नामक स्थान से आए थे , उन्हें जाता है। यह बंगाली थियेटर का ही एक  पारंपरिक रूप है और काफी लोकप्रिय है। समसामयिक विषयों पर भी जात्रा मंडली वाले जात्राएं करते रहते हैं।

जब चर्चा शोभा बाजार की हो रही हो और सोना गाछी का जिक्र न हो, ऐसा हो सकता है भला ? सोनागाछी- एक ऐसा नाम, जो लोग जानते हैं नाम से भी परहेज रखते हैं। पर, क्या आंख मूंद लेने से सच्चाई खत्म हो जाती है? नही, बिल्कुल नही। कल का सोनागाछी, आज का रविन्द्र सारणी  से लेकर चितपुर एवं उसके आसपास का इलाका।शोभा बाजार  मेट्रो से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर। लोग कहते हैं एशिया का सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया। जहां शाम होते ही नज़ारा बदल जाता है। दुकानें सज जाती हैं। शुरुआत में कहने को रिहायशी इलाका। नही जानते हैं और गुजर गए तो शायद पता भी न चले। एक तरफ लाइन से  छोटी बड़ी तिजोरी बनाने वालों की लगभग बीस से पच्चीस कारखाने तो दूसरी ओर जात्रा मंडली वालों के दफ्तर खुले हुए । छोटे छोटे सोना चांदी की दुकानें, कुछ दुकानें ज्वैलरी बनाने के औजारों की भी । लोग कहते हैं इन्हीं सोना चांदी की दुकानों की वजह से इस एरिया का नाम सोनागाछी पड़ा।

इन सबके बीच सरेआम चलता हुआ एशिया की सबसे बड़ी जिस्म की मंडी। सब कुछ यंत्रवत चलता हुआ। यूं तो यह मंडी कभी बंद नही होती है पर शाम होते ही नज़ारा बिल्कुल बदल सा जाता है। एक तरफ सरकार अपनी चौकस नजरों के साथ खड़ी रहती है और और दूसरी तरफ सारी व्यवस्था चलती रहती है। कइयों के घर के चुल्हे जलते हैं यहां की कमाई से। फिर भी नाम लेने मे संकोच।

सब कुछ चल रहा होता है। सामाजिक समीकरणों के हिसाब से उपेक्षित, अछूत पर सामाजिक संतुलन के लिए जरूरी । इतिहास गवाह है। नाम बदलता रहा है पर काम नही। क्यूं नही इसे वैधानिक कर देते हो? कम से कम तमाम तरह के शोषण से तो इन्हें मुक्ति मिलेगी। चैन की जिंदगी जी पाएंगी। इनकी जिंदगी बेड़ियों मे जकड़ी हुई है। ज़मीं और आसमां तो मयस्सर है पर सांसों पर हर वक्त पहरा है। घुट घुट कर जीने को अभिशप्त। चेहरे पर हमेशा एक छद्म आवरण। आंखें कुछ ढूँढती हुई।पर, यहां भी पहरा है। लोग कहते हैं  दुर्गा पूजा के अवसर पर मां दुर्गा की मूर्ति जब बनाई जाती है तो पहली मिट्टी किसी वेश्या के पास से ही मंगवाई जाती है। वाह रे हमारा सामाजिक समीकरण ! उपेक्षितों को भी सम्मानित करने का अच्छा तरीका ढूंढा है! 
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आलेख - मनीश वर्मा 
लेखक का ईमेल - itomanish@gmail.com
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