Wednesday 29 January 2020

मनु कहिन (16) / कोलकाता डायरी "भाग-2"

धर्म का अर्थशास्त्र
 *गतांक से आगे* (कोलकाता डायरी )

(मुख्य पेज पर जाइये -   bejodindia.blogspot.com /  हर 12 घंटों पर देखिए -  FB+ Today)




आप किसी भी शहर मे जाते हैं, अगर आप नास्तिक नही हैं तो चाहे आप किसी भी धर्म या संप्रदाय को मानते हों आपकी कोशिश रहती है कि आप अपने विश्वास और आस्था के चरणों मे सर झुकाएं। आस्था बलवती है। यहां पर आपकी सारी तार्किक योग्यताएं धरी की धरी रह जाती हैं।

 आस्था/ विश्वास और तर्क दो समांतर रेखाएं हैं ,कभी न मिलने वाली। व्यर्थ है, इस संदर्भ मे कुछ भी सोचना। फिर भी, पता नही लोगों के पास कितना समय है इनपर बात करने के लिए। हालांकि, नतीजा सिफर ही है।

हां, तो मैं बात कहीं और करना चाह रहा हूं और इसका सिरा घूम कहीं और जा रहा है। फिलहाल, मैं बात कोलकाता की, वहां के एक विश्व प्रसिद्ध मंदिर, मां काली की कर रहा हूं। कोलकाता आने वाला और खासकर ईश्वरीय शक्ति को मानने वाला हर शख्स बिना मां के चरणों मे अपना सिर नवाए अपना कोई भी काम शुरू ही नही कर सकता है। और हां, अगर इस शहर मे आप स्थानांतरण या फिर किसी अन्य कारणों से रहने आएं तो यह आपका कर्तव्य बनता है कि आप साधिकार मां की चरणों मे अपना सिर झुकाएं। अपने आप को उनके चरणों मे समर्पित कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। यही तो हमारी आस्था, हमारा विश्वास है। मैं भी कुछ इन्हीं वजहों से मां का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए , अपने आप को उनके चरणों मे समर्पित करने के लिए उनके पास गया। उनके पास जाने के लिए हमने ( पत्नी के साथ) देर शाम का समय चुना ताकि भीड़ थोड़ी कम हो जाए और हम मां का दर्शन कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें।

गूगल बाबा की शरण मे जाने पर पता चला कि बुधवार या गुरुवार को रात्रि के आठ बजे के करीब भीड़ कम होती है। तो भाई अपनी सवारी निकल पड़ी। पहले मेट्रो पकड़ कालीघाट स्टेशन पहुंचे और वहां से लगभग एक फर्लांग की दूरी पैदल ही तय कर मंदिर के प्रांगण मे पहुंच गए। वहीं पर पता चला कि आप दो नंबर या फिर पांच नंबर के गेट से अंदर जा सकते हैं। बैरिकेड लगा हुआ था। पर, भीड़ इतनी नही थी कि बैरिकेड के रास्ते जाया जा सके। जो भी भीड़ थी मंदिर के प्रांगण मे ही थी। खैर , हम दोनों पति-पत्नी बाहर एक फूल बेचने वाले के पास चप्पल खोलकर मंदिर के प्रांगण मे पहुंच गए। प्रसाद हम लोगों ने नही खरीदा था। दरअसल, देश के बहुत सारे मंदिरों मे जाने के पश्चात यह अनुभव हो गया था कि अंदर प्रसाद लेकर जाना व्यर्थ है। पुनः यहां आस्था और तर्क मे द्वंद्व जारी है। कुछ पढ़ लिख गया हूं तो कहीं न कहीं तर्क हावी हो जाता है। यहां भी हावी ही रहा। 

अंदर जैसे ही लाइन मे खड़ा हुआ, एक तथाकथित पंडित जी ने ऑफर किया चलिए आपको वीआईपी गेट से लिए चलते हैं। दोनों व्यक्तियों का सौ रुपए लगेगा और हां, सौ रुपए मेरे दक्षिणा के अलग से लगेंगे। मान गए! अति विशिष्ट व्यक्ति! इंसान को और क्या चाहिए! खैर हम दोनों पति-पत्नी बिल्कुल मां के सामने खड़े कर दिए गए। अब हमारा सामना एक दूसरे पंडित जी से हुआ। उन्होंने बड़ी ही व्यग्रता और शीघ्रता पूर्वक मंत्रों का उच्चारण करते हुए कहा कि आप लोगों का मैंने संकल्प करा दिया, पांच सौ रूपए निकालो। क्या करता, निकालना पड़ा। सब कुछ इतना अचानक हुआ कि कुछ सोचने समझने का वक्त ही नही मिला। ऐसा लगा किसी ने मानो सम्मोहित कर लिया हो। सब कुछ यंत्रवत हो रहा था। यह अहसास भी मंदिर से निकलने के बाद हुआ। अब आगे देखिए, उस पांच सौ वाले पंडित जी ने हम दोनों पति-पत्नी को नीचे मंदिर के गर्भ गृह में उतार दिया और हम दोनों पति-पत्नी को अब गर्भगृह वाले बड़े पंडित जी के हवाले कर दिया। बड़े ही आराम से, अब हम दोनों पति-पत्नी मां के चरणों में खड़े थे। बड़े पंडित जी पूजा करवा रहे थे। ऐसा लगा मानो वक्त हमारे लिए थम सा गया हो। अति विशिष्ट व्यक्ति जो ठहरे। हमारी पूरी संतुष्टि के साथ पूजा कराई गई। हमारी निंद्रा तो तब टूटी जब बड़े पंडित जी ने पूजा अर्चना के बाद अपना आदेश सुनाया। चलो, मां के चरणों मे पांच हजार रुपए रखो। मुझे तो काटो तो खून नही। पास मे इतने पैसे थे नही। मैंने पंद्रह सौ रुपए दिए और लगभग डरे हुए मुद्रा मे मुस्कुराते हुए कहा कि आप मेरा पर्स देख लें मेरे पास इतने पैसे नही हैं। पर्स देखने के बाद उन्होंने मुझे कहा चलो दो सौ रुपए और निकालो और जाओ । हम दोनों पति-पत्नी वहां से सरपट बाहर आए। उस अनुभूति को मैं बयान नही कर सकता हूं। पर, आप समझ सकते हैं।

कुछ देर के लिए मुझे ऐसा लगा कि मैं कहां आ गया हूं? क्या मेरी आस्था, मेरे विश्वास का यही मोल है? आप संतुष्ट हो सकते हैं कि चलो पैसा कहां गया? पैसा तो मंदिर के दान पात्र में ही गया। मुझे भी आपत्ति नही है। पर, तरीका ठीक नही रहा। और भी कई मंदिरों मे मैं गया हूं। प्रबंधन समिति ने हर एक चीज के लिए रकम तय कर रखा है। किसी को कोई तकलीफ़ नही होती है। लोग बाग अपनी श्रद्धा, विश्वास एवं क्षमता के अनुसार भगवान के दर्शन करते हैं। पर, यहां तो एक अलग ही व्यवस्था थी। जरूरत है ऐसी व्यवस्था को नियमित और नियंत्रित करने की। आस्था ,विश्वास  एवं क्षमता के मद्देनजर।
..............
आलेख - मनीश वर्मा 
लेखक का ईमेल - itomanish@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल -editorbejodindia@gmail.com