अज़ीज़ों से अधिक यारी, जुदाई भी नहीं अच्छी
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सदाकत के बिना कोई कमाई भी नहीं अच्छी
कमाई से मिली रोटी भले आधी, वही अच्छी
कभी हैवान के घर की मलाई भी नहीं अच्छी
जहाँ हो स्वार्थ का रिश्ता वहाँ परहेज है अच्छा
अगर हो बात छोटी सी लड़ाई भी नहीं अच्छी
रहे जो आदमी लोभी नहीं संतोष है उसको
कभी खुदगर्ज की ज्यादे भलाई भी नहीं अच्छी
जहाँ संगत बुरी होगी वहाँ बच्चे बिगड़ते हैं
वहाँ शासन जरूरी है ढिलाई भी नहीं अच्छी
लगी हो ढेर रूई की वहाँ बस ध्यान यह रखना
वहाँ दें हाथ बच्चों के सलाई भी नहीं अच्छी
हमेशा ग्रीष्म का मौसम हमें काफ़ी सताता है
तपिश वह जून की हो या जुलाई भी नहीं अच्छी
शहीदों के घरों में तो मदद हैं लाख सरकारी
मगर जब देखता सूनी कलाई भी नहीं अच्छी....
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जो नहीं परहेज करता पाप से
कर रहा वह दुश्मनी खुद आपसे
है हृदय में जब कुटिलता ही भरी
क्या घटेगा पाप उसका जाप से
खोजते हैं धूप हम हेमन्त में
ग्रीष्म में जलते उसी क्यों ताप से
भूलते सब जा रहे हैं शिष्टता
बात भी तनकर करेगा बाप से
भूल जिसने की नहीं हो वह भला
क्यों डरेगा फिर किसी भी श्राप से
आज 'बाबा' भी दुखी है सोच में
देख जग की त्रासदी सन्ताप से.
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कवि- बाबा वैद्यनाथ झा
कवि का ईमेल आईडी - jhababa55@yahoo.com
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