Tuesday 16 July 2019

मनु कहिन (5) - यथार्थ / नाम को नहीं नियमों को बदलो

नाम को नहीं नियमों को बदलो

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आज का शहर बैंगलुरू पर, आज तक दिल को नही समझा पाया। भाई यह अपना पुराना शहर बैंगलोर ही तो है। आज तक बंबई ही निकलता है मुंह से। क्या नाम बदल जाने से फितरत बदल जाती है ? चीजें कतई नहीं बदला करती हैं। बस कागजों पर नाम बदल जाते हैं। बड़ी मुश्किल होती है बैंगलोर को बैंगलुरू बोलने में। काश कोई यह समझ पाता। नाम में क्या रखा है? कभी शेक्सपियर साहब ने कहा था। काश ! आज वो होते तो शायद उन्हें इस बात का एहसास होता। 

नाम में ही तो सब कुछ रखा है। अगर नही तो मुगलसराय, दीन दयाल उपाध्याय नही होता। नही होता , गौतमबुद्ध नगर। न बनारस , वाराणसी होता और न ही मद्रास, चेन्नई होता।

भाई बदलना ही है तो आज के संदर्भ में पुराने जमाने के अप्रासंगिक हो चुके नियमों को बदलने की कोशिश करो। 
खैर! कहां से बात कहां चली गई। लोग सही ही तो कहते हैं - बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी....

शहर बैंगलोर, मैं तो यही कहूंगा। बहुत लोगों के आकांक्षाओ एवं अरमानों का शहर। बच्चों की पढ़ाई से लेकर उनके जीवन में सेटल होने तक का शहर। बुढ़ापे में अपने लिए भी अपने जड़ों को छोड़कर, अपनी मिट्टी से दूर एक ठिकाना ढूंढता एक शहर। 

बात सिर्फ बैंगलोर की नही है। अमूमन हर महानगरों की यही कहानी है। महानगरों की भीड़ में आमतौर पर आदमी खो-सा जाता है। वह एकाकी जीवन जीने लगता है। दुनिया मानो सिमट-सी जाती है। 

गलत तो नही है। मैं भी उनमें से एक हूं। हां, पर शायद अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों को छोड़कर दूसरे शहर में ठिकाना बनाने का अहसास मुझे कुछ ऐसा ही लगता है जैसे किसी बच्चे को उसकी इच्छा के विरुद्ध होस्टल में डाल दिया गया हो। महानगर में रहने की कल्पना मात्र से ही सिहरन सी होने लगती है। भाई, आखिर इसी शहर के लिए तो मुझे अपने 'प्रोस्पेक्ट' के लगभग चार बेशकीमती साल छोड़ने पड़े। नियम भी पता नहीं क्या क्या होते हैं। अरे भाई, बदलना है तो कोई इसे बदलो। इतना मत बांटो कि आगे बंटने लायक़ कुछ बचे ही नही।

बहुत बदलाव आया है। हमारे देश ने बहुत तरक्की की है। हम हमेशा अपनी विरासत , अपने इतिहास को याद कर गौरवान्वित होते हैं। अब वक्त आ गया है उनसे ऊपर उठ कर सोचने का। इतिहास और विरासत से सीख लेकर आगे बढ़ने का। क्या ईमानदारी से अपने आप को समझा सकते हैं कि वाकई में हमारा विकास समावेशी विकास है?

बुनियादी सुविधाओं के लिए भी हमें अपना शहर, अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों से दूर होना पड़ता है। इसका असर हमारी संस्कृति पर पड़ता है। आप इस संदर्भ में जरा सोचें तो शायद आप समझ सकते हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं। आज हम शायद इसे नही समझ पा रहे हैं पर, हमें समझना होगा। हमारे समाज वैज्ञानिकों को इस पर नजर रखनी होगी। जीवन सिर्फ और सिर्फ दाल-रोटी तक ही सीमित न हो कर उसके परे भी है, बस इसे समझने की जरूरत है।
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आलेख - मनीश वर्मा
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