Monday 4 February 2019

खोज / विजय कुमार की कविता

खोज 

विजय बाबू 

तब पाया क्या था कैसे जानूं
अब खोया क्या कैसे समझूँ,
गर मिले तराजू इंसानियत तौलने की
तो फिर मुकम्मल इंसान को खोज सकूँ ।

सोचूँ क्या पाया पर क्यों आख़िर
फूल सी बगिया भी है वसंत ख़ातिर,
है सबकी नज़र कुछ पा सकने की
तो कोई भरी झोली तो खोज सकूँ ।

जीवन एक है पर न सबकी एक सी
बातें अनेक हैं न एक हम सब की,
भीड़ में ना कोई बेगाना ना कोई पराया
 हसरत मंज़िलें पाने को खोज सकूँ ।

रात के बाद दिन फिर वही रात अंधेरी
डगर जीवन की कुछ पूरी कुछ अधूरी,
है यही ज़िंदगी जिगर रख महफ़ूज़ रे मनवा
बढ़ूँ आगे बस राह आगे की खोज सकूँ।
.......

कवि~ विजय बाबू
छायाचित्र - पेरिस के प्रसिद्ध संग्रहालय ( Musée du Louvre.) में खींचा गया  कवि का चित्र 
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नोट-  श्री विजय बाबू, बेजोड़ इंडिया ब्लॉग के सबसे सक्रिय पाठकों में से हैं और ग्राम - कमलपुर (मचुबनी)  के रहनेवाले हैं.