Saturday 14 March 2020

मनु कहिन (20) - रिश्ते (कहानी)

रिश्ते
मैंने उसे काफी समझाया। ... पर, मैं अपने आप को कैसे समझाता? 

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आज मेरे सामने बीते हुए मेरे पूरे वर्ष दिखाई दे रहे हैं। बड़ी ही असमंजस की स्थिति है। यह फैसला कर पाना मुश्किल हो रहा है कि शुरुआत कहां से करूं। कुछ समझ नही पा रहा हूं। बीता हुआ हर लम्हा ऐसा लगता है मानो कल की ही तो बात है। नही भूल पा रहा हूं वो पल।आप उन्हें भुला भी कैसे सकते हैं भला। आपकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है वो। सारे दृश्य एक चलचित्र की तरह सामने से होकर गुजरते जा रहे हैं। एक बड़ा ही अजीब अहसास है। जिंदगी मे हर पल की एक कीमत होती है। हर इंसान की जिंदगी मे कुछ पल ऐसे आते हैं जिन्हें वो चाहकर भी भुला नही सकता है। यह अलग बात है उनमें से कुछ पल की यादें खट्टी मीठी होती हैं तो कुछ की ऐसी कड़वी जिनके कल्पना मात्र से ही आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कुछ यादें बड़ी ही हसीन होती हैं - जब आप किशोरावस्था की उम्र पार कर जवानी की दहलीज पर अपने कदम हौले से रख रहे होते हैं। ये ऐसी यादें होती हैं जो बार बार आपके सामने से होकर गुजरती हैं और वस्तुत: आप चाहते हैं कि वो गुजरती रहें, तब तक, जब तक कि उन्हें याद करते हुए आप बेसुध न हो जाएं। आप होश खो बैठे। 

ऐसे ही हसीन यादों मे से एक 'उसका' हमारी जिंदगी मे आना था। 'वो' हमारी जिंदगी मे कब और कैसे आई, इसकी व्याख्या तो काफी मुश्किल होगी पर सच्चाई तो यह है कि   'उसे' मेरी जिंदगी में आना था सो आ गई। खैर! अब जब  'वो' जब आ ही गई तो इस बात से मैं अपने आप को अलग नही कर सकता हूं कि हम दोनों के बीच एक  'रिश्ते' की शुरुआत हुई। 'रिश्ते' की शुरुआत हुई, और हां हुई भी बड़े अचानक तरीके से एवं काफी हद तक भावनात्मक। पर, आज तक वह  'रिश्ता' बिना नाम के ही चलता रहा।

 लाख सोचने के बाद भी हम उस रिश्ते को एक नाम दे पाने मे असमर्थ रहे। आप या हममें से कोई भी व्यक्ति आमतौर पर उस 'रिश्ते' को एक दोस्त अथवा एक प्रेमिका का संबोधन ही दे सकता था। उनलोगों ने दिया भी पर अगर यह मौका मुझे मिला होता तो शायद मैं यही कहूंगा कि इस रिश्ते या संबंध का नाम आप चाहे कुछ भी रख लें, इसे जो भी कह लें  मगर यह उन सभी रिश्तों से अलग एक भिन्न प्रकार का रिश्ता था, एक किस्म का प्यार था। "पलूटोनिक लव" था यह! खैर! फिलहाल अगर इस व्यर्थ के विवाद मे न ही पड़ा जाए तो अच्छा होगा अन्यथा इस विवाद मे पड़कर हम और आप मुख्य कथानक से दूर हट सकते हैं।

इंटर की पढ़ाई पूरी करने के बाद हम शहर आ गए थे अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए। गांव मे पढ़ाई का न बहुत बढ़िया माहौल था और न ही कोई कालेज जहां आगे की पढ़ाई पूरी की जा सकती थी। हमारे साथ कुछ लड़के और भी थे जो गांव से शहर आए थे अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखने की खातिर। 

वह लड़की जिसका जिक्र मैं पहले ही कर चुका हूं, हमारे पड़ोस मे ही रहा करती थी। खूबसूरती की मिसाल थी वो। बस इतना ही कहा जा सकता है। यूं तो खूबसूरती देखने वाले की आंखों मे होती है फिर भी उसकी तारीफ में इतना तो कहा ही जा सकता है कि - माशा अल्लाह ! भगवान ने बड़ी ही खूबसूरती के साथ, फूरसत के क्षणों मे बड़े ही आराम से उसे बनाया होगा। शायद गढ़ा हो। उसकी झील सी गहरी एवं नीली आंखें मानो बेताब थी बाहर निकल कर बातें करने को। सांचे मे ढला हुआ रेशम सा नाजुक बदन। बोलती थी तो मानो ऐसा लगता था - फूल झड़ रहे हों। आप यकीन करें या ना करें, पर यह सच है! आप उसकी तारीफें करते जाएंगे, थक जाएंगे पर, तारीफें खत्म नही होंगी अलबत्ता- शब्द कम पड़ जाएंगे!! कुदरत का नायाब तोहफा, अद्भुत करिश्मा थी वो! बला की खूबसूरत थी वो! हम सभी पागल से हो गए थे, उसके पीछे। उसकी एक झलक पाने को हम सब की निगाहें उसके घर की ओर लगी रहती थीं। बड़े ही अजीब दिन थे वो हम सब के लिए।

इसे आप मात्र संयोग कह लें या कुछ और वो मेरी जिंदगी मे आ गई। संयोगवश उसका दाखिला हमारे ही कॉलेज मे हो गया। अब दिन भर उसके घर की ओर ताक झांक का काम तो खत्म हो चुका था पर, समस्या यह थी कि शुरुआत की भूमिका क्या हो। एनालिसिस करने जब हम सारे मित्र बैठते थे तो यह निष्कर्ष तो अवश्य निकलता था कि दिलों मे हलचल दोनों ही तरफ हो रही है। खैर! होनी को यही मंजूर था। कालेज मे पढ़ाई के दरम्यान कुछ संयोग ऐसे बने कि बातचीत की शुरुआत हो गई। धीरे धीरे बातचीत का एक सिलसिला शुरू हो गया।

मिलने जुलने की भी शुरुआत हो गई। ऐसा लगा मानो कोई बांध अचानक टूट गया हो और उससे निकला पानी बड़े ही वेग से बिना किसी बाधाओं के बढ़ता ही जा रहा हो। हमारे संबंध एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गए जिसका नाम मैंने शुरू मे ही पलूटोनिक लव दे रखा है। एक दूसरे से मिले बिना समय काटना मुश्किल हो गया। जिस दिन हम नही मिलते थे ऐसा लगता था मानो हम कुछ खो रहे हों। एक अलग ही रिश्ता कायम हो गया था हमारे बीच में। यह रिश्ता समाज के बनाए सारे रिश्तों से थोड़ा अलग था। एक सुकून की बात यह थी कि हमारे अभिभावकों को हमारे इस रिश्ते के बारे मे अभी तक कोई जानकारी नही थी। अन्यथा रूढ़ियों से भरे समाज के अपने ही बनाए गए नियमों से इतर इस रिश्ते का हश्र क्या हो सकता था, इस बात का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। 

हां, तो मैं यह कह रहा था कि हम दोनों ने सामाजिक रिश्ते से अलग एक भिन्न रिश्ता कायम कर रखा था, जिसे न तो आप प्यार और न ही दोस्ती की संज्ञा दे सकते थे। यह उससे ऊपर की ही बात थी। समय मानो पंख लगा कर उड़ रहा था।

हमारी परीक्षाएं समाप्त हो गई थी। हम सभी अपने अपने रिजल्ट का इंतजार कर रहे थे। पर, हम दोनों की चिंता तो औरों से भिन्न थी। हम दोनों को अब यह चिंता सता रही थी कि आगे क्या होगा ? अब न चाहते हुए भी हम दोनों को अलग होना ही होगा क्योंकि उच्च शिक्षा के लिए मेरा विदेश जाना तय था। हम दोनों की चिंता स्वाभाविक थी। परिणाम निकला । सभी की आशा के अनुरूप मुझे पूरे कॉलेज मे प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। वह भी अच्छे नंबरों से पास हुई। मैं वापस घर लौटने की तैयारी करने लगा। उसकी स्थिति मुझसे देखी नही जा रही थी। काफी दुखी थी वो। यह उसके चेहरे और हाव भाव से प्रकट हो रहा था। दुखी तो खैर मैं भी था पर अपनी मर्दानगी का ख्याल मुझे कुछ भी अपने चेहरे पर प्रकट नही होने दे रहा था। अलग होने के दिन सुबह से ही वो काफी गुमसुम थी। जाने के वक्त उसका रोना मुझसे देखा नही जा रहा था। पर, क्या किया जा सकता था?  'रिश्ता ' ही कुछ ऐसा था! मैंने उसे काफी समझाया। कहा - मिलना बिछुडना तो प्रकृति का नियम है। हम इसके अपवाद कैसे हो सकते हैं! हमें इन बातों को समझना होगा। परिपक्वता का तकाजा भी यही है। पर, मैं अपने आप को कैसे समझाता? अगले कुछ पलों मे हमारी दुनिया बदलने वाली थी। 

अगले ही महीने मैं अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए अमेरिका चला आया। कुछ दिनों तक तो हम एक दूसरे को खतों के जरिए अपने रिश्ते का अहसास कराते रहे।पर, धीरे धीरे समय के साथ ही साथ कम होता हुआ , बिल्कुल ही खत्म हो गया।  मैं अपनी पढ़ाई और वहां की जिंदगी मे सामंजस्य बैठाते हुए काफी व्यस्त हो गया था। पता नही उसके साथ क्या हुआ ? उसने भी खबर लेने की कोई कोशिश नाहीं की। समय अपने तय किए हुए रास्ते पर अपने मुताबिक चल रहा था।  

कभी कभी जब आप घिर जाते हैं। कोई रास्ता नही नज़र आता है तो सब कुछ समय पर छोड़ देना चाहिए। प्रारब्ध सर्वोपरि है। यहां इंसान लाचार हो जाता है। कुछ सालों के बाद, अपनी पढ़ाई पूरी कर जब मैं वापस भारत लौटा तो मालूम पड़ा कि उसके घरवालों को हमारे इस रिश्ते का पता चल गया था और उन्होंने जल्दबाजी मे समाज मे बदनामी के भय से उसकी शादी कर दी थी। अब वो एक बेहद खूबसूरत बच्चे की मां है। बच्चा तो मानो उसकी छाया ही है। भरा पूरा परिवार है उसका। मेरी भी सगाई हो चुकी थी। अगले ही महीने मेरी शादी होने वाली है।

अब वो अपनी जिंदगी जी रही है और मैं भी अपनी जिंदगी की एक नई शुरुआत करने जा रहा हूं। कभी कभी लगता है वो क्या था ? नाम तो मैंने दे ही दिया था।पर, क्या उसे सामाजिक मान्यता थी। नही। बिल्कुल नही! समाज तो बस उसी रिश्ते को मानता है, मान्यता देता है जिसे उसने खुद बनाया है। एक अलग सा सोच शायद नही। वैसे भी समाज से अलग कोई भी सोच एक क्रांतिकारी कदम उठाने के समान होता है। शायद समाज की भी अपनी कुछ मजबुरियां हैं। मैं अब भी सोचता हूं, क्या वह एक  'इन्फ़चुएशन' (दीवानापन) था ? हो सकता है ।पर, शायद नही। वो एक दोस्ती थी। दोस्त से थोड़ा ज्यादा, प्यार से थोड़ा कम। हां पलूटोनिक ही था वो। पलूटोनिक लव एक ऐसा शब्द, एक ऐसा रिश्ता जहां अपवित्रता की कोई गुंजाइश नही।

 पलूटोनिक लव एक ऐसा शब्द है जहां दैहिक आकर्षण अपनी प्रासंगिकता खो बैठता है। इसमे व्यक्तिगत शरीर की वासना पर आधारित आकर्षण के बजाय आत्माओं के जुड़ने और अंततः सच्चाई के साथ एक होने पर बल दिया जाता है। यह एक आनंदपूर्ण भावनात्मक संवेदना है।
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लेखक - मनीश वर्मा
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