Sunday 15 March 2020

'हंस' पत्रिका में रूपा सिंह की एक कहानी 'दुखां दी कटोरी : सूखां दा छल्ला' पर कुमार सुशान्त की प्रतिक्रिया

रूपा सिंह की कहानी अच्छी किंतु इसकी तुलना अन्य कहानीकारों से करना अनुचित

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हंस' पत्रिका में रूपा सिंह की एक कहानी छपी है। शीर्षक है, 'दुखां दी कटोरी : सूखां दा छल्ला'। जिस व्यक्ति ने इस कहानी को 'उसने कहा था' से बेहतर बताया उससे पूर्णतः असहमत हूँ। उस व्यक्ति के कहानी की समझ का पता भी इसी बात से चल जाता है कि उसने कहानी की तुलना किस कहानी से की है। पहले उन्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि अमृतसर शहर को आधार बनाकर कहानी लिख देने से  'दुखां दी कटोरी : सूखां दा छल्ला', 'उसने कहा था' से बेहतर कहानी नहीं हो जायेगी। 

अमृतसर शहर को आधार बनाकर मोहन राकेश ने एक कहानी लिखी थी, 'मलबे का मालिक' । यह कहानी विभाजन और अमृतसर दोनों को केंद्र में रखकर लिखी गयी है ठीक रूपा सिंह की कहानी की तरह। 'दुखां दी कटोरी : सूखां दा छल्ला' कहानी मोहन राकेश की कहानी,'मलबे के मालिक' से भी बेहतर नहीं है। 'उसने कहा था'  की बात तो छोड़ ही दीजिये। खैर जिस महाशय ने इसे 'कफ़न'  से बेहतर बताया है और जिन्होंने इसे कृष्णा सोबती से आगे की कहानी कहा है एवं जिन लोगों ने कहा कि संजय और उदय प्रकाश की कहानियाँ इसके आगे कुछ भी नहीं तथा जिसने यह कहा कि ऐसी कहानी हिन्दी मे लिखी नहीं गयी - ऐसे लोगों के कहानी की समझ पर तरस आता है। शायद उन्हें कहानी की कोई समझ ही नहीं है।

यहाँ एक बात स्पष्ट कर देता हूँ कि मेरी नज़र में यह कहानी एक अच्छी कहानी है। लेकिन किसी और लेखक या लेखिका की कहानी से इस कहानी की तुलना करना ठीक नहीं है। हर कहानी का अपना वातावरण और परिवेश होता है जिसमें वह कहानी फलती-फूलती है।

अब आप लोग प्रश्न कर सकते हैं कि मैंने भी तो मोहन राकेश की कहानी से इस कहानी की तुलना कर दी है। इस पर मेरा उत्तर यह है कि ऐसा मैंने अन्य लोगों को कहानी की समझ पर प्रश्न उठाने के क्रम में किया है। जिससे वे मोहन राकेश की कहानी को पढ़कर अपनी दृष्टि साफ कर सकें।

शिवकिशोर तिवारी और अजय नेवारिया को कहानी के विरूद्ध लिखने पर ट्रोल नहीं करना चाहिये था क्योंकि साहित्य के लिए ट्रोल संस्कृति ठीक नहीं है। उनका जो भी मत है अगर आप उससे असहमत है तो फेसबुक पर उन्हें ट्रोल न करके उनके खिलाफ पत्रिकाओं में लिखिये।

कृष्ण कल्पित ने इस कहानी के सम्बंध में लिखा कि,
"मुझे ख़ुशी है कि रूपा सिंह ने अपनी एक ही कहानी से गीताश्री जैसी अनेक और अत्यंत महत्वाकांक्षी महिला कथाकारों को पीछे छोड़ दिया है । रूपा सिंह पंजाबी और बिहारी दोनों हैं और उनमें बहुत कथानक छिपे हुए हैं ।

कहानी अच्छी ही होगी । कहानी बुरी होती ही नहीं लेकिन इस कहानी की अतिप्रशंसा करने वाले रूपा सिंह के शुभचिंतक नहीं हैं ।

और तुम तो जानती हो कि मैं कहानी-उपन्यास बिना किसी पुख़्ता सिफ़ारिश के पढ़ता नहीं, बेबे !"

कृष्ण कल्पित की उपर्युक्त टिप्पणी की दो बातों से एक तरफ असहमत हूँ तो दूसरी तरफ एक बात से सहमत भी हूँ । असहमत इस बात से हूँ कि उपर्युक्त टिप्पणी में कृष्ण कल्पित का यह गुरूर ठीक नहीं है कि  वे कहानी-उपन्यास बिना किसी पुख्ता  सिफ़ारिश के नहीं पढ़ते ।

इतनी नामचीन लेखिकाओं और लेखकों ने  बिना किसी की सिफ़ारिश के यह कहानी पढ़ी और अपनी प्रतिक्रिया दी, उच्चता इसे कहते हैं । महिलाओं के लिए उन्हें ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए जैसा उन्होंने उपर्युक्त टिप्पणी में किया है।  सहमत इस बात से हूँ कि इस कहानी की अतिप्रशंसा करने वाले रूपा सिंह के शुभचिंतक नहीं हैं।

साहित्य जगत की वरिष्ठ और स्थापित लेखिका ‘मृदुला गर्ग’ जी द्वारा  रूपासिंह  की कहानी  पर जो विचार रखे गए हैं, उनसे मैं असहमत नहीं बल्कि आक्रोश से भी भरा हूँ ! उनकी कहानी की  समझ पर मुझे हैरानी है !  मेरी आपत्तियाँ  बिन्दुवार इस प्रकार हैं -

1) इस कहानी  को ‘आला जासूसी’ कहानी बताना मुझे सरासर  आपत्तिजनक  और अपमानजनक लगा ! बेबे की पीड़ा पर उन्होंने कही भी कुछ नहीं कहा और  न ही इसे ‘बेबे की पीड़ा की कहानी’ बताया, जो असल में यह हैं!

2) इतना ही नहीं वे नाना को ‘कसाई’ घोषित करती हैं ! नाना अपनी सुग्गी को यदि कारणवश देहरी के भीतर बन्द रखते थे या अकेले देहरी पार नहीं करने देते थे  या मायके तक में भी उनके साथ जाते और रहते थे, तो इसके पीछे नाना की जो असुरक्षा की और  प्यार-ख्याल की भावना है, उस संवेदना को सिद्धहस्त लेखिका कही जाने वाली आदरणीया मृदुला जी देखने में क्यों असमर्थ रही ! उनकी सोच व समझ का दायरा इतना तंग, इतना सीमित है कि वे उस पुरुष को एक मात्र कसाई के रूप में देखती हैं ? इसके आगे उनकी  सोच जाती ही नहीं ? बेहद अफ़सोसनाक !

3) तीसरी बात कि  मृदुला जी, नाना को अपनी सुग्गी को भाई की बीमारी के बहाने से अपने देश, अपने परिवार, अपने जीवन में वापिस लेने को ‘अगुवा’  करना कहती है, यह भी उनकी नकारात्मक  सोच का परिचायक है ! जबकि मेरे अनुसार  नाना द्वारा अपनी  खोई हुई मंगेतर को वापिस लेने की जुगत करना ‘अगुवा’  करना कतई नहीं ! सुग्गी हालात की दास थी, मजबूरी में अपने शरणदाता को अपना सर्वस्व मानती है और वो अंजान शमशेर भी उसे बाइज्ज़त पत्नी बना कर अपनाता है ! यह सब बंटवारे से उपजे हालात के कारण घटता  है ! इसलिए उन हालात के मद्देनज़र,  नाना का अपनी मंगेतर को  किसी भी बहाने से वापिस लेना, अपनी मंगेतर को हासिल  करना हुआ, न कि अगुवा करना  !

अगली बात, नाना की उदारता ने मृदुला जी के दिल को एक बार भी नहीं छुआ कि गोद में  बच्चा देख कर भी उसने अपनी मंगेतर को  हिकारत से नहीं  देखा और सम्मान से स्वीकार किया ! यह कड़क दिखने वाले  नाना की उदारता की इंतहा थी ! जिसके  पीछे नाना का प्यार ही हिलोरे मार रहा था !  वरना  उस ज़माने  के मर्द इतने  कड़क और  पुरुष वर्चस्ववादी होते थे कि पता चला नहीं कि उनकी बीवी या मंगेतर किसी पराये मर्द द्वारा अगर  छू ली गई, तो उसे त्यागते  वे देर नहीं करते थे ! सुग्गी तो नाना की मंगेतर थी, वे उसकी गोद में बच्चा देख कर उसे जस का तस त्याग भी सकते थे, किन्तु नहीं ! उनका सुग्गी के लिए प्रेम अधिक प्रबल निकला और उन्होंने उसे शमशेर की बेटी सहित सुग्गी  को अपना  लिया !  यह एक उदात्त मानवीय कदम था !

मृदुला जी ने कहानी की मूल संवेदना बेबे की पीड़ा पर एक बार भी ठीक से कुछ न कह कर, उस पर  बस एक वाक्य से बात खत्म कर दी कि इतनी पीड़ा के बीच खुशी का अहसास था। मुहब्बत की तरावट चित्त को भिगो रही थी। उनसे यह उम्मीद न थी !

जैसा की  आदरणीया मृदुला जी ने इस कहानी को ‘जासूसी’ कहानी का ख़िताब दिया और अंत में रूपा जी को अपनी असल वारिस का आशीष दिया तो क्या वे इस बात को स्वीकारेगीं कि आने वाले समय में ‘आला दर्ज़े के  जासूसी कहानीकार’ ही उनके ‘वारिस’ होंगे ? मुझे लगता है मृदुला जी कहना क्या चाहती हैं, शायद उन्हें ही नहीं पता !

अब कुछ अन्य खास  आकलन - 

मैंने शुरू से अंत तक सभी लेखकों की उत्तम अभिव्यक्तियाँ पढ़ी, जिनमें ममता कालिया जी, रोहिणी अग्रवाल जी और अनिल प्रभा कुमार जी ने बहुत अच्छे से अपने विचार रखे !  किन्तु सबसे अधिक  संवेदनशीलता  और बारीकी से इस कहानी के कहे-अनकहे महत्वपूर्ण  कतरों को जिसने  समझा और उनका  कायदे से उल्लेख किया, वे हैं  दीप्ति गुप्ता !

1) एक अकेली  दीप्ति  जी हैं जिन्होंने बहुत संवेदनशील ढंग से  कहानी को पढ़ा, आत्मसात किया और फिर कलम चलाई ! इतने कलमकारों में  सिर्फ़ उन्होंने नाना के कड़क व्यक्तित्व के पीछे छुपे  उस प्रेमी और असुरक्षित पति को देखा, जो सतत असुरक्षा और प्यार से भरा हुआ सुग्गी को अकेला नहीं छोड़ता ! इस बात पर मैंने भी ऊपर विस्तार से लिखा है !

2) दूसरी ज़रूरी बात तोषी और नातिन के निश्छल मासूम प्यार  पर भी  दीप्ति  जी ने  लिखा ! उनके बाद  संजीव चंदन ने भी इस समानांतर कथा की बात कही, पर इनसे पहले दीप्ति जी  इस बात को कह चुकी थी,  किन्तु अन्य किसी ने इसे समझा ही नहीं  और समझा भी तो बस बेबे पर ही अटके रहे ! अन्य सब कहानीकारों को भी इसका उल्लेख करना  था न !

3)  तीसरी बात एक जगह तोषी, नातिन के सिर पर चुनरी डालता है जब वह दर्द भरा लोक गीत गाती बेबे के कमरे के बाहर उदास खडी हुई  थी ! इस बात को भी दीप्ति जी की पारखी समझ ने पकड़ा क्योंकि पंजाब में लड़के द्वारा लड़की पर चुनरी डालना, उसे अपनाने  की लोक रस्म होती है ! रूपा जी ने इन दोनों पात्रों के मासूम लगाव का खास संकेत इस चित्रण के द्वारा दिया, जिसे एक मात्र दीप्ति जी ने  समझा ! उनकी कहानी प्रखर समझ को सलाम ! उनका आकलन इस  कहानी को  समृद्ध करता है !

अंत में यही कहना चाहूँगा कि कहानीकार बन जाना एक अलग बात है और  दूसरे कहानीकार  की कहानी पढ़ कर  उसे सही से आत्मसात करके, उस पर सही-सही कलम चलाना  बड़े-बड़े प्रख्यात कलमकारो और कलमवीरों के भी बस की बात नहीं !
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आलेख - कुमार सुशान्त  
आलेख के लेखक का ईमेल - kumarsushant515@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ब्लॉग का ईमेल - editorbejodindia@gmail.com