कविता
वैसे तो दुनिया बहुत है बड़ी
पाने को कुछ है कहाँ कमी
चाहो तो पाओ कड़ी दर कड़ी
रख सको छोटी ही एक परिधि ।
मन में छोटी सी दुनिया सबकी
मन से कभी छोटी न रह सकी
सोच तू चौहद्दी से दूर एक घर की
रच सको गर मुकम्मल एक परिधि।
सीढ़ियाँ एक-एक डगर आगे की
मुड़े जो दिशाएँ बिल्कुल उलटी सी
गर जिगर रहे इक राह तकने की
रख महफ़ूज़ पहिया सी एक परिधि ।
दूंढने चला हूँ फिर वही एक घर की
मिले जो ठहर सकूँ पल सुकून सी
राह मुझे दिखे और मुझे राह दिखाए
फैला लो अकल्पित फिर एक परिधि ।
......
कवि- विजय कुमार
कवि का ईमेल आईडी - vijaykumarscorpio@gmail.com
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