Friday 21 June 2019

फैला लो अकल्पित फिर एक परिधि / कवि - विजय कुमार

कविता



वैसे तो दुनिया बहुत है बड़ी
पाने को कुछ है कहाँ कमी
चाहो तो पाओ कड़ी दर कड़ी
रख सको छोटी ही एक परिधि 

मन में छोटी सी दुनिया सबकी
मन से कभी छोटी न रह सकी
सोच तू चौहद्दी से दूर एक घर की
रच सको गर मुकम्मल एक परिधि 

सीढ़ियाँ एक-एक डगर आगे की
मुड़े जो दिशाएँ बिल्कुल उलटी सी
गर जिगर रहे इक राह तकने की
रख महफ़ूज़ पहिया सी एक परिधि ।

दूंढने चला हूँ फिर वही एक घर की
मिले जो ठहर सकूँ पल सुकून सी
राह मुझे दिखे और मुझे राह दिखाए
फैला लो अकल्पित फिर एक परिधि 
......
कवि- विजय कुमार 
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