कविता
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बचपन का वो आँगन अब पुराना हो गया है,
वहाँ रहता न कोई तो अब अनजाना हो गया है।
दरवाज़े का रंग कुछ उखड़ सा गया है अब,
घर की चकाचौंध पर थोड़ा दाग आ चुका है।
हम जाते है हर साल घर बस एक बार,
फिर पूछते है, ये कोना कहाँ से आ गया है?
नौकरी दूर में सही पर घर की महक बुलाती मुझ को
यह सुगंध आज के बच्चों को है क्या पता।
हम अब रुकते कहाँ एक जगह?
शहर में भी घर है, पर छाँव कहाँ हैं?
बगीचे में बैठने का वो ठाँव कहाँ है?
रात सुकून की थी और नज़ारे थे जवां,
यहाँ तो सितारे भी रिश्वत पर मुस्कुराते हैं ।
आधुनिकता ने मेरे शहर को भी रौंदा है,
जहाँ थे खाली खेत वहां अब इमारतों का बसेरा है।
हमें बचपन में अलग ही आजादी थी
मुझसे पूछो कितने की एक पतंग आती थी।
अब वहां भी सबका घरों में हो गया है बसेरा
मिलना खुलना अब शहर सा हो गया है।
पहले पड़ोसी दोस्त कहलाते थे
सुख दुःख में साथ निभाते थे।
आज की पीढ़ी थोड़ी होशियार हो गयी है
अपनी बातें अपने तक ही सीमित रहती है।
गांव में भी छा रहा है शहर का नशा
पड़ोस में कौन आया किसको पता।
वो घास पर पटिया बिछा कर बैठना
अंतराक्षी और नयी पुरानी बातें करना
सबके दुःख सुख में संयोग
और अतिथि सत्कार को आतुर।
कहाँ गईं वो पुरानी रस्म
जिसमें सम्मान बड़ों का गहना था
हम संस्कार उनसे ही सीखते
और तमीज़ को बातों में संजोते थे।
ऋतु अनेक आते हैं पर वो दिन कब आएगा
जब पूरा परिवार साथ में समय बितायेगा।
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कवि - ज्योतिवर्द्धन
कवि का ईमेल आईडी - jyotivardhan12@gmail.com
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